हर शाम सूरज की
बोझिल फीकी बाहें
स्याह क्षितिज में
समाने के पहले
छूकर मेरी आँखों को
उदास कर जाती है
गहरे नीले नभ पर
छायी नीरवता
कोंचने लगती है
मन के सारे भावों को,
तब अपनी अनुभूतियों की
चिता पर लेटी
बेचैन,छटपटाती हुई
तुम्हारी स्मृतियों के एक-एक तारे गिनती हूँ
पूछती हूँ अनुत्तरित प्रश्न स्वयं से
क्यूँ मेरी सिसकियों को अनसुना कर
विवशता का बहाना किये
बस टुकुर-टुकुर ताकते रहे?
तुम्हारे खोखले भावों में गहरे उतरती रही
तुम खेलते रहे निर्लज्जता से
तुम्हारे छल को सच समझती रही
मैं जीती रही हर स्वप्न
भूल कर अपने अस्तित्व
पर फिर भी
लाख़ कोशिशों के बावजूद
न भूल सकी गंध
तुम्हारे चम्पई एहसास के
तुम्हें सीने से लगाये हर पल जीती रही
छल के जाल में उलझी
मन की यात्रा से थककर
अब तोड़कर कृत्रिम एहसासों के धागे
जलाकर छद्म अनुभूतियों का कफ़न
अपना सम्मान कर
आत्मबोध के आलोक में
जगमगाना चाहती हूँ।
-श्वेता सिन्हा
स्त्रीमन !!! अत्यंत गूढ़ और अथाह ! जितना समर्पण, उतना ही आत्माभिमान ! सिर्फ प्रेम, विश्वास और सम्मान की चाह रखने वाला स्त्रीमन जब किसी पर विश्वास करता है तो उसे पलकों पर बिठाने में भी देर नहीं लगाता लेकिन विश्वास टूट जाने पर.....
ReplyDeleteअब तोड़कर कृत्रिम एहसासों के धागे
जलाकर छद्म अनुभूतियों का कफ़न
अपना सम्मान कर
आत्मबोध की ज्योति में
जगमगाना चाहती हूँ।
जलते हुआ मन स्वयं अपनी ही आग में तपकर कुंदन हो जाता है !!!
जी बहुत आभारी हूँ मीना जी,आपके द्वारा रचना के भावों का विस्तार बहुत अच्छा लगा।
Deleteस्नेह बनाये रखे।
सादर।
मन की बात लबों तक लाना मुश्किल है
ReplyDeleteऔर उस से भी जादा मुश्किल है उसे समझना
वो फिर भी निरंतर प्रयत्न करता रहता है
अपने स्वाभिमान को बचाने की ...स्त्री का मन
एक अबूझ पहेली...👌👌👌
बहुत आभारी हूँ प्रिय नीतू,सुंदर प्रतिक्रिया आपकी सदैव मनोबल बढ़ाती है।
Deleteसस्नेह आभार।
बहुत ही सुंदर और प्रभावशाली रचना, नमन है आपको
Deleteतोड के सारे भ्रम जिंदगी जी लूं तूझे
ReplyDeleteहंस कर जीना है शुरू करु अभी से।
छलावे से निकलता मन अपना आलोक बनने को बेताब, बहुत सुंदर रचना श्वेता।
वाह्हह.दी...सुंदर लिखा आपने..:)
Deleteबहुत आभारी हूँ दी...हृदयतल से बेहद शुक्रिया।
सस्नेह बहुत सारा।
वाह!!श्वेता ,अद्भुत !!बहुत ही सुंदर ...लाजवाब रचना शैली ,सुंदर भावों से सजी कृति .
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका शुभा दी,तहेदिल से शुक्रिया आपका सस्नेह।
Deleteप्रिय श्वेता -- आत्मबोध ही स्वयं से साक्षात्कार कराता है और आत्मसम्मान का पथ प्रशस्त करता है | सभी उलझनों से गुजर स्वयं का एक पथ चुनना एक अनिर्वचनीय ख़ुशी की ओर ले जाता है | हमेशा की तरह सुंदर रचना प्रिय श्वेता |
ReplyDeleteप्रिय रेणु दी,
Deleteआप सदैव रचना के भावों को नवीन अर्थ प्रदान करती है। हृदयतल से अति आभारी हूँ आपकी।
सस्नेह शुक्रिया सदैव।
सादर।
गहरे नीले नभ पर
ReplyDeleteछायी नीरवता
कोंचने लगती है
मन की सारे भावों को,
अति आभार आपका दी:)
Deleteहृदयतल से शुक्रिया खूब सारा।
वाहः
ReplyDeleteहर पंक्ति उम्दा
बेहतरीन रचना
अति आभार आपका लोकेश जी
Deleteतहेदिल से शुक्रिया बहुत सारा।
,बहुत ही शानदार बेहतरीन लाजवाब ....
ReplyDeleteफिर कहती हूँ श्वेता जी जाने कितने दिलों को पढा है /जिया है आपने...वाह!!!
हाँ यह आत्मबोध ही तो है जौ इस छल को समझ पायें परन्तुआत्मबोध की ज्योति में कुछ ही जगमगाते हैं कुछ तो स्वयं ही जल जाते हैं.....
बहुत ही सुन्दर... अद्भुत कृति।
प्रिय सुधा जी आपकी उत्साहभरी प्रतिक्रिया ने मन प्रफुल्लित कर दिया है।
Deleteआपकी सुंदर प्रतिक्रिया ने और भी लिखने के लिए प्रेरित किया।
आभार आपका सस्नेह।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 06 मई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआदरणीय सर,
Deleteहृदयतल से अति आभारी हूँ आपकी।
सुन्दर
ReplyDeleteअति आभार आपका सर।
Deleteस्वेता, स्त्री मन की अबूझ पहेली को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है आपने।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार ज्योति दी।
Deleteतहेदिल से बेहद शुक्रिया सस्नेह।
मेरा मानना है ये केवल स्त्री मन की ही बात नही है
ReplyDeleteधोका किसी को भी मिले वो फिर कहां सही से जी पात है...
पहले यादे सताती है फिर अपना ही पागलपन नोचने लगता है..जॉन इलिया साहब का शेर है कि
"बाद भी तेरे जान-ए-जान दिल में रहा अजब समां
याद रही तेरी यहाँ, फिर तेरी याद भी गई (यानी पागल आदमी को कुछ याद नही रहता )
अब जो आप सम्मान की इमारत बनाना चाहते उसकी नींव तो यही पागलपन, दीवानगी होगी.
बहादुरी से लिखी गयी अद्भुत कविता.
रोहिताश जी, आपकी प्रतिक्रिया बहुत सुखद अनुभूति है मेरे लिए। ब्लॉग पर आपका सादर अभिनन्दन है। आपने बेहद सुंदरता से रचना का विश्लेषण किया बहुत आभारी हूँ।
Deleteकृपया आगे भी आते रहे विनम्र निवेदन है।
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत आभार आपका ओंकार जी।तहेदिल से.शुक्रिया बहुत सारा।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका निश्छल जी।
ReplyDeleteतहेदिल से शुक्रिया बहुत सारा।
आपकी की विस्तृत सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए जितना भी धन्यवाद कह लूँ कम है।
विनम्र सादर
आभार 🙏
कोंचने लगती है
ReplyDeleteमन के सारे भावों को,
तब अपनी अनुभूतियों की
चिता पर लेटी
बेचैन,छटपटाती हुई
तुम्हारी स्मृतियों के एक-एक तारे गिनती हूँ...... बढ़िया!!!