क्या फर्क पड़ जायेगा
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हर बार यही सोचती हूँ
क्यों सोचूँ मैं विशेष झुण्ड की तरह
निपुणता से तटस्थ रहूँगी...
परंतु घटनाक्रमों एवं विचारों के
संघर्षों से उत्पन्न ताप
सारे संकल्पों को भस्म करने
लगती है ,
तब एक-एक कर
सहमतियों-असहमतियों के फुदने
भावनाओं की महीन सुईयों से
अपने विचारों के ऊपर
सजाकर सिलने लगती हूँ
फिर, शुद्ध स्वार्थ में गोते लगाते
बहरूपियों के
नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन से
उकताकर सोचती हूँ
बाहरी कोलाहल में
सम्मिलित होने का स्वांग क्यों भरूँ?
क्या फर्क पड़ जायेगा
अपने अंतर्मन की शांति की तलाश में
मेरी तटस्थता से
मेरी संवेदना को
अगर मृत मान लिया जाएगा ?
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श्वेता सिन्हा
मेरी तटस्थता से
ReplyDeleteमेरी संवेदना को
अगर मृत मान लिया जाएगा ?
तो क्या फर्क पड़ जाएगा
सुन्दर रचना
आभार
सादर...
सुन्दर | वैसे अमृत काल है सिफारिश कर देंगे मृत नहीं मानेगी सरकार :)
ReplyDeleteसंवेदनाएँ कभी मृत नहीं होतीं, यदि होती हैं तो वे संवेदनाएँ ही नहीं है और कोई माने या न माने अपना ही दिल कचोटता है जब हम सब देखकर भी कुछ कर नहीं सकते
ReplyDeleteफिर, शुद्ध स्वार्थ में गोते लगाते
ReplyDeleteबहरूपियों के
नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन से
उकताकर सोचती हूँ
बाहरी कोलाहल में
सम्मिलित होने का स्वांग क्यों भरूँ?
सही सोचती हैं आप ऐसा स्वांग भरने की आवश्यकता भी नहीं ...मुझे लगता है है ऐसे बहुरूपियों के साथ हमारे होने या ना होने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता परन्तु बेमन उनके साथ रहने से हमें बहुत बड़ा फर्क पड़ता है । अंतर्मन की शांति चाहिए तो तटस्थ रहना ही होगा ।
बहुत ही लाजवाब चिंतनपरक सृजन
वाह!!!
बहुत सुन्दर !! चिन्तनपरक सृजन ।
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteआपकी लेखनी पहली बार पढ़ी… मन का कौतूहल लगभग समानांतर पाथ पर है।
ReplyDeleteसाभार
हर बार यही सोचती हूँ
ReplyDeleteक्यों सोचूँ मैं विशेष झुण्ड की तरह
निपुणता से तटस्थ रहूँगी...
परंतु घटनाक्रमों एवं विचारों के
संघर्षों से उत्पन्न ताप
सारे संकल्पों को भस्म करने
लगती है , ,,,,,,,आपकी लेखनी को नमन आदरणीया, बहुत ही सत्य और। सशक्त रचना ।
बाहरी कोलाहल में
ReplyDeleteसम्मिलित होने का स्वांग क्यों भरूँ?
क्या फर्क पड़ जायेगा
अपने अंतर्मन की शांति की तलाश में
मेरी तटस्थता से
मेरी संवेदना को
अगर मृत मान लिया जाएगा ?
आज के समय में श्रेष्ठ दिखने दिखाने का बड़ा जुनून है, ऐसे में समय के कुचक्र को भेदती सारगर्भित रचना। बहुत बधाई।
बहुत ही सुन्दर छन्दमुक्त रचना लिखी आपने
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteएक अत्यंत भावुक और संवेदनशील हृदय को ही नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन से फर्क पड़ता है किसी और को नहीं। निर्लेप आत्माएं आत्ममुग्ध हो जी रही।,अपने जीवन के अलावा उन्हें किसी से कोई सरोकार नहीं! एक मार्मिक और महत्वपूर्ण सृजन के लिए बधाई प्रिय श्वेता!
ReplyDeleteआदरणीया मैम , बहुत ही संवेदनशील और सशक्त रचना । हमारे देश के नेतृत्व करने वाले हर बार कहीं न कहीं हमारी अपेसकक्षाओं को बुरी तरह तोड़ देते हैं , चाहे वह लॉक-डाउन में साँसों की काल-बाजारी हो या कलकत्ता में निर्भया कांड की पुनरावृत्ति । कभी-कभी अपने आस-पास नजर दौड़ाती हूँ तो लगता है हमारे देश की वास्तविक समस्याओं का तो कोई हल निकला ही नहीं । ऐसे में आपकी रचना देश और समाज की सच्चाई उजागर कर हमें सोंचने पर विवश करती है । आपको पुनः प्रणाम और इतनी सुंदर रचना पढ़ाने के लिए आभार।
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