सरक रहे हैं
तनों की सुडौल देह से
पातों के उत्तरीय,
टहनियों की नाजुक
कलाइयों से
टूटकर बिखर रही हैं
खनकती हरी चुड़ियाँ।
निर्वस्त्र हुए वृक्षों पर
पक्षियों के रहस्य और
हैं धमनियों के जाल;
टूटे,झरे,निराशा के ठूँठ पर
नन्हीं,कोमल,आशाओं से भरी
पत्ती मुस्कुराती है;
नारंगी भोर कुलाचें भरकर
टहक सांझ में बदल जाती है।
सुनो...
जीवन है पतझड़ और बसंत
कभी लगे अंत तो कभी अनंत
ऋतुओं के दंश से घबराकर
जड़ न होकर
जड़ बन जाना
हर मौसम से बे-असर रह जाना
पतझड़ में धैर्य रखकर;
वसंत और बरखा को बचाना अपने भीतर
इस संसार को सुंदर,जीवंत और
नम बनाए रखने के लिए...।
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१२ मार्च २०२५
पतझड़ में धैर्य रखकर;
ReplyDeleteवसंत और बरखा को बचाना
सुंदर चिंतन
आभार
सादर
वंदन
बहुत सुंदर पाठ , जिसे जीवन में उतार मानव कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी डटकर साहस के साथ हरेक चीज का सामना करने के लिए तैयार रहे सकता है ।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 15 मार्च 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह ! जीवन में आने वाली हर चुनौती को स्वीकार करने की सीख देने वाली सुंदर रचना, जीवन इसी का तो नाम है
ReplyDeleteसुन्दर | होली की शुभकामनाएँ |
ReplyDeleteसरक रहे हैं
ReplyDeleteतनों की सुडौल देह से
पातों के उत्तरीय,
टहनियों की नाजुक
कलाइयों से
टूटकर बिखर रही हैं
खनकती हरी चुड़ियाँ।
अप्रतिम , सजीव बिंब, मानवीकरण का सुंदर प्रयोग.
सुंदर कल्पना♥️♥️
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