Saturday, 6 October 2018

जीवन रण में


 कुरुक्षेत्र के जीवन रण में
गिरकर फिर चलना सीखो 
कंटक राहों के अनगिन सह
छिलकर भी पलना सीखो

लिए बैसाखी बेबस बनकर
कुछ पग में ही थक जाओगे
हिम्मत तो करो अब पाँव तले
हर डर को तुम दलना सीखो

 पट बिन नयनों के खोले ही
कहते हो तम का पहरा है
तुम आग हो एक चिंगारी हो
जगमग-जगमग जलना सीखो

 खोना क्यों दीदा रो-रोकर
न विगत लौट फिर आयेगा
बीत रहा जो उस क्षण के
रंगों में घुल ढलना सीखो

पिघल धूप में जाते हो 
क्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो

सलवटों में उमर की छुपी हुई
दबी घुटी हुई कुछ निशानियाँ 
पूरा करना हो स्वप्न अगर 
गले हौसलों के मिलना सीखो

-श्वेता सिन्हा

Sunday, 30 September 2018

गहरा रंग


उँघती भोर में
चिड़ियों के कलरव के साथ
आँखें मिचमिचाती ,अलसाती
चाय की महक में घुली
किरणों की सोंधी छुअन
पत्तों ,फूलों,दूबों पर पसरे
पनीले इंद्रधनुष,
सुबह की ताज़गी के
सारे रंग समेटकर
हल्दी,नमक,तेल,छौंक,बघार,
में डालकर
अक़्सर नज़र अंदाज़
कर देती है
बहार का रंग,
दौड़ती-भागती,
पिटारों से निकालकर
अलगनी पर डालती
कुछ गीली,सूखी यादों को,
 श्वेत-श्याम रंग की सीली खुशबू
को नथुनों में भरकर
 कतरती,गूँथती,पीसती,
अपने स्वप्नों के सुनहरे रंग,
पतझड़ को बुहारकर
देहरी के बाहर रख देती
हवाओं की सरसराहट
मेघों की आवारगी,
खगों,तितलियों,
भँवरों का गीत
टेसु के फूल,
हरसिंगार की लालिमा,
केसरिया गेंदा,सुर्ख़ गुलाब
महकती जूही
चाँदनी की स्निग्धता,
गुनगुनी धूप की मदमाहट,
बसंत की सुगबुगाहट,
रिमझिम बूँदों सी बरसती
रंगों को मिलाकर
एक चुटकी सिंदूर के रंग में
 सजाती है
अपने माथे पर,
अपने तन-मन पर
 खिले सारे रंगों को निचोड़कर
 समर्पण की तुलिका को
 डुबो-डुबोकर भाव भरे पलों में
 पुरुष की कामनाओं के कैनवास पर
 उकेरती है अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति
हल्के रंगों से रंगकर
अपने व्यक्तित्व
 उभारकर चटख रंगों को
 रचती है
 पुरुषत्व का गहरा रंग।

 -श्वेता सिन्हा


Thursday, 27 September 2018

तुम खुश हो तो अच्छा है


मन दर्पण को दे पत्थर की भेंट
तुम खुश हो तो अच्छा है
मुस्कानों का करके गर आखेट
तुम खुश हो तो अच्छा है

मरु हृदय में ढूँढता छाया
तृण तरु झुलसा दृग भर आया
सींच अश्रु से "स्व" के सूखे खेत
तुम खुश हो तो अच्छा है

कोरे कागद व्यथा पसीजी
बाँच प्रीत झक चुनरी भींजी
बींधें तीर-सी प्रखर शब्द की बेंत
तुम खुश हो तो अच्छा है

मन लगी मेंहदी गहरी रची
उलझी पपनियों से वेदना बची  
उपहास चिकोटी दे मर्म संकेत
तुम खुश हो तो अच्छा है

मन मेरे यूँ विकल न हो
लोलुप प्रीत भ्रमर न हो
प्रीत पात्र में देकर कुछ पल भेंट
तुम खुश हो तो अच्छा है

-श्वेता सिन्हा


शब्द अर्थ
पपनियों=पलकों

Saturday, 22 September 2018

तृष्णा


मदिर प्रीत की चाह लिये
हिय तृष्णा में भरमाई रे
जानूँ न जोगी काहे 
सुध-बुध खोई पगलाई रे

सपनों के चंदन वन महके
चंचल पाखी मधुवन चहके
चख पराग बतरस जोगी
मैं मन ही मन बौराई रे

"पी"आकर्षण माया,भ्रम में
तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में
सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी
राह ठिठकी मैं चकराई रे

उड़-उड़कर पंख हुये शिथिल 
नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल 
हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी
क्षणभर भी जी न पाई रे

जीवन वैतरणी के तट पर
तृप्ति का रीता घट लेकर
मोह की बूँदें भर-भर जोगी
मैं तृष्णा से अकुलाई रे

-श्वेता सिन्हा

Wednesday, 19 September 2018

समुंदर

मोह के समुंदर में
डूबता उतराता मन
छटपटाती लहर भाव की
वेग से आती
आहृलादित होकर
किलकती,शोर मचाती
बहा ले जाना चाहती है
अपनी मोहक, फेनिल,
लहरों में खींचकर
हक़ीक़त की रेत का
 स्पर्श करते ही लहर
टूटकर बिखर जाती है
चुपचाप लौट जाती है
तट की मर्यादा के मान
के लिए।

★★★

अनन्त तक पसरे 
 समुंदर की
 गहराई नापने की 
 उत्सुकता में
एक बार छू लिया
मचलते लहरों के सीने को
तब से हूँ लापता
विस्तृत समुंदर के
पाश में आबद्ध

★★★

समुंदर समेटकर
रखता है
अपने आगोश में
समूचा आसमान,
सूरज की तीक्ष्णता
सोखकर
चंदा की शीतलता
ओढ़कर
पीकर अनगिन
नदियों की मिठास
गर्भ के खज़ाने
के दर्प से अनभिज्ञ
नहीं बदलता
अपना स्वभाव
निर्निमेष,निष्काम
निःशब्द 
प्रकृति की उकताहट
अपनी लहरों से
उलीचता है अनवरत

★★★★★

-श्वेता सिन्हा

Sunday, 9 September 2018

मितवा मेरे


हिय की हुकहुक सुन जा रे 
ओ बेदर्दी मितवा मेरे
जान के यूँ अनजान न बन
ओ निर्मोही मितवा मेरे

माना कि तेरे सपनों की,
सुंदर तस्वीर नहीं हूँ मैं
कैसे हो सकती हूँ मैं भला!
राँझे की हीर नहीं हूँ मैं
जल जाऊँ बाती बनकर
मुझे दीप बना लो पूजा का
न बिसराओ अपने मन से
सुन बात मेरी मितवा मेरे

क्या तुम्हें भला दे सकती मैं?
हूँ रिक्त अंजुरी तृप्ति की
सुर सजा न पाऊँ मधुर,मदिर
गाती हूँ राग विरक्ति की
अर्ध्य बनूँ जीवन-घट का
मैं सींचूँ तेरे मनरथ  को
अधर सजा मुस्कान बना
ना रुठो तुम, मितवा मेरे

है विकल हृदय की चाह मेरी
तुम देख लो दृष्टि भर मुझको
भ्रम हो तो फिर हो क्यूँ धुक-धुक?
बींधे दृग वृष्टि कर मुझको
तुम देह नहीं सुरभित मन हो
जग बंधन को जो माने न
मृग मन का चंचल समझे न 
तू समुझा जा मितवा मेरे

-श्वेता सिन्हा




Wednesday, 5 September 2018

शिक्षक


नित नन्हे माटी के दीपक गढ़ते,
नव अंकुरित भविष्य के रक्षक हैं ।
सपनों में इंद्रधनुषी रंग भरने वाले,
अद्वितीय चित्रकार  शिक्षक हैं।

कृषक, शिष्यों के जीवन के कर्मठ,
बंजर भूमि पर हरियाली लाते हैं।
बोकर बीज व्यक्तित्व निर्माण के,
समय के पन्नों पर इतिहास बनाते हैं।

जनगणना और मतगणना करना
अब रह गये शिक्षक के कर्तव्य।
"लोलुप व्यापारी"का तमगा देते
उंगली थामे दिखलाते जो गतंव्य

शिक्षा अगर व्यवसाय बन रहा,
गहराई में मथकर वजह तलाशिये।
अव्यवस्थित प्रणाली के कीचड़ से,
शिक्षक के आत्मसम्मान न बांचिये।

जो करते है जीवन का अंधियारा दूर
सम्मान में उनके ज़रा सर तो झुकाइये
मुट्ठीभर कलुषित चरित्र के दंड स्वरूप
समस्त समूह को कटघरे में न लाइये

शिक्षक को अपशब्द कहने के पहले,
अपनी आत्मा का भार अवश्य तोलिए।
अपने शब्द भंडार का कीमती पिटारा,
आत्मविश्लेषण के पश्चात खोलिए।

माना वक़्त बदल गया और बदली सोच
चाणक्य,द्रोण,संदीपन से गुरु नहीं मिलते
पर सोचिये न एकलव्य,अर्जुन,चंद्रगुप्त,
अब अरुणि जैसे पुष्प भी तो नहीं खिलते

जीवन रथ के सारथी,पथ के मार्गदर्शक
प्रस्तर अनगढ़,धीरज धर,गढ़ते मूर्ति रुप
ऊर्जावान हैं सूर्य से,नभ सा हृदय विशाल
इस जीवन के संग्राम में गुरु प्रभु समरुप


-श्वेता सिन्हा

Saturday, 1 September 2018

स्वर खो देती हूँ


पग-पग के अवरोधों से
मैं घबराकर रो देती हूँ
झंझावातों से डर-डरकर
समय बहुमूल्य खो देती हूँ

संसृति की मायावी भँवरों में
सुख-दुःख की मारक लहरों में
भ्रम जालों में उलझी-उलझी
खुशियाँ प्रायः खो देती हूँ

मैं चिड़िया हूँ बिन पंखों की
पड़ी रेत सजावटी शंखों-सी 
सागर मीठा करते-करते
अस्तित्व सदा खो देती हूँ

दिवस ताप अकुलाई-सी
निशि स्वप्न भरमाई-सी
खोया-पाया गुनते-गुनते
रस प्रेम सुधा खो देती हूँ 

क्यों तोड़ न पाती बंधन को?
सच मानूँ मिथ्या स्पंदन को
अधरों पर बंशी रखते-रखते
मैं गीत के स्वर खो देती हूँ

-श्वेता सिन्हा


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...