Tuesday, 9 May 2017

ख्वाब

खामोश रात के दामन में,
जब झील में पेड़ों के साये,
गहरी नींद में सो जाते हैंं
उदास झील को दर्पण बना
अपना मुखड़ा निहारता,
चाँद मुस्कुराता होगा,
सितारों जड़ी चाँदनी की
झिलमिलाती चुनरी ओढ़कर
डबडबाती झील की आँखों में
मोतियों-सा बिखर जाता होगा
पहर-पहर रात को करवट
बदलती देख कर,
दिल आसमां का,
धड़क जाता होगा
दूर अपने आँगन मेंं बैठा
मेरे ख़्यालों में डूबा "वो"
हथेलियों में रखकर चाँद
आँखों में भरकर मुहब्बत
मेरे ख़्वाब सजाता तो होगा।

      #श्वेता सिन्हा

तितलियाँ

रंगीन ख्वाबों सी आँख में भरी तितलियाँ
ओस की बूँदों सी पत्तों पे ठहरी तितलियाँ

गुनगुनाने लगा दिल बन गया चमन कोई
गुल  के पराग लबों पे बिखरी तितलियाँ

बादलों के शजर में रंग भरने को आतुर
इन्द्रधनुष के शाखों पे मखमली तितलियाँ

बचपना दिल का लौट आता है उस पल
हौले से छूये गुलाबों की कली तितलियाँ

उदास मन के अंधेरों में उजाला है भरती
दिल की मासूम कहानी की परी तितलियाँ

मन के आसमाँ पर बेरोक फिरती रहती
आवारा है ख्यालों की मनचली तितलियाँ

         #श्वेता🍁


Monday, 8 May 2017

मिराज़ सा छलना

सुबह का चलकर शाम में ढलना
जीवन का हर दिन जिस्म बदलना

हसरतों की रेत पे दर्या उम्मीद की
खुशी की चाह में मिराज़ सा छलना

चुभते हो काँटें ही काँटे तो फिर भी
जारी है गुल पे तितली का मचलना

वक्त के हाथों से ज़िदगी फिसलती है
नामुमकिन इकपल भी उम्र का टलना

अंधेरे नहीं होते हमसफर ज़िदगी में
सफर के लिये तय सूरज का निकलना

      #श्वेता🍁

Saturday, 6 May 2017

कुछ पल सुकून के


      गहमा-गहमी ,भागम भाग अचानक से थम गयी जैसे....घड़ी की सूईयों पर टिकी भोर की भागदौड़....सबको हड़बड़ी होती है...अपने गंतव्य पर समय पर पहुँचने की...सबके जाने के बाद...घर की चुप्पी को करीने  सहेजती....
भोर के इस पल का रोज बेसब्री से इंतज़ार होता है मुझे....
चाय चढ़ाकर रसोई की खिड़की के बाहर नजरें चली जाती है हमेशा....जहाँ से दिखाई पड़ता है विशाल पीपल का पेड़...जब से इस घर आई हूँ फुरसत के पल उस पेड़ को ताकने में बीत जाता है....नन्हें नन्हें चिड़ियों की भरमार है उसपर....सुबह से ही.तरह तरह की आवाजें निकालते...किलकते,फुदकते एक दूसरे से जाने किस भाषा में बतियाते....मधुर गीत गाते मानो गायन प्रतियोगिता होती है हर सुबह... आजकल तो कोयल भोर के प्रथम प्रहर से ही रियाज़ शुरू कर देती है....इस डाली से उस डाली, हरे पत्तों से आँखमिचौली खेलते.....नाचते आपस में खेलते पक्षी बहुत सुकून देते है मन को.....खिड़की के बाहर निकले मार्बल पर जरा सा चावल ,रोटी के कुछ महीन टुकड़े रख देती हूँ जब मैंना और गौरेया रसोई की खिड़की पर आकर स्नेह से देखते है एक एक दाना खाते सारे जहान की बातें कहते है मुझसे फिर इक असीम आनन्द की लहर से मन में दौड़ने लगती है....जाने क्या क्या कहती है फुदक फुदक कर....मीठी बातों को सुनती उनके क्रिया कलाप को निहारने का यह सुख अद्भुत है।सबकुछ भूलकर उनके साथ बिताये ये पल एक अलग सुख दे जाते है......पुरवाई की हल्की थाप जैसे तन छूकर मन की सारी थकान मिटा देती है।
चाय के एक एक घूँट के साथ दुनिया से झमेले से परे अपने मौन का यह पल पूरे दिन की ताज़गी दे जाता है।


    #श्वेता🍁


7 a.m
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Thursday, 4 May 2017

तुम बिन

जलते दोपहर का मौन
अनायास ही उतर आया
भर गया कोना कोना
मन के शांत गलियारे का
कसकर बंद तो किये थे
दरवाज़े मन के,
फिर भी ये धूप अंदर तक
आकर जला रही है
एक नन्ही गौरेया सी
पीपल की छाँव से पृथक
घर के रोशनदान में
एक एक तिनके बटोर कर
छोटा सा आशियां बनाने
को मशगूल हो जैसे
जिद्दी और कही जाती ही नहीं,
उड़ के वापस आ जाती है
बस तुम्हारे ख्याल जैसे ही,
सोच के असंख्य उलझे
धागों में तुम्हारे ही अक्स
बार बार झटक तो रही हूँ
पर देखो न हर सिरा
तुम से शुरू होकर तुम पर
ही टिका हुआ है।
हर वो शब्द जो तुम कह गये
बार बार मन दुहरा रहा
मैं बाध्य तो नहीं तुम्हें सोचने को
पर तुम जैसे बाध्य कर रहे हो
मन का पंछी उड़कर कहीं
नहीं जा पा रहा,लौट रहा रह रह के
थक सी गयी विचारों के द्वंद्व से,
कुछ नहीं बदलता अन्तर्मन में
अनवरत विचार मग्न मन
अपना सुख जिसमें पाता
चाहो न चाहो बस वही सोचता है
सही-गलत ,सीमा- वर्जनाएँ
कहाँ मानता है मन का पंछी
तुम्हारे मौन से उद्वेलित,बेचैन
मन बहुत उदास है आज।

      #श्वेता🍁

Wednesday, 3 May 2017

सज़ा

दस्तूर  ज़माने की तोड़ने की सज़ा मिलती है
बेहद चाहने मे, तड़पने की उम्रभर दुआ मिलती है

ज़मीं पर रहकर महताब को ताका नहीं करते
जला जाती है चाँदनी, जख्मों को न दवा मिलती है

किस यकीं से थामें रहे कोई यकीं की डोर बता
ख़्वाब टूटकर चुभ जाए ,तो ज़िंदगी लापता मिलती है

जिनका आशियां बिखरा हो उनका हाल क्या जानो
अश्क़ों के तिनके से बने ,मकां मे फिर जगह मिलती है

क्यों लौटे उस राह जिसकी परछाईयाँ भी अपनी नही
चंद ख़ुशियों की चाहत में, तन्हाइयाँ बेपनाह मिलती है

        #श्वेता🍁



भावों में बहना छोड़ दे

पत्थरों के शहर में रहना है गर
आईना बनने का सपना छोड़ दे

बदल गये है काँटों के मायने अब
साथ फूलों के तू खिलना छोड़ दे

या खुदा दिल बना पत्थर का मिरा
चाहूँ कि भावों में बहना छोड़ दे

एक दिन मरना तो है सबको यहाँ
हर पल तू घुट के मरना छोड़ दे

आस्तीनों में पलते यहाँ नफरत बहुत
प्रेम के ढोंग पे खुद को छलना छोड़ दे

ख्वाब चाँद पाने का सच होता नहीं
जमीं देख तू आसमां पे चलना छोड़ दे

       #श्वेता🍁

Tuesday, 2 May 2017

शहीदों के लिए

कडी़ निंदा करने का अच्छा दस्तूर हो गया
कब समझोगे फिर से बेटा माँ से दूर हो गया

रोती बेवाओं का दर्द कोई न जान पाया
और वो पत्थरबाज देश में मशहूर हो गया

कागज़ पर बयानबाजी अब बंद भी करो तुम
माँगे है इंसाफ क्या वीरों का खूं फिजूल हो गया

सह रहे हो मुट्ठीभर भेड़ियों की मनमानी को
शेर ए हिंदुस्तान इतना कबसे मजबूर हो गया

दंड दो प्रतिशोध लो एक निर्णय तो अब कठोर लो
हुक्मरानों की नीति का हरजाना तो भरपूर हो गया

उपचार तो करना होगा इस दर्द बेहिसाब का
सीमा का जख्म पककर अब नासूर हो गया

         #श्वेता🍁


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...