Monday, 18 September 2017

तकदीर की रेखा


वो जो फिरते है लोग
फटे चीथड़े लपेटे
मलिन चेहरे पर
निर्विकार भाव ओढ़े,
रूखे भूरे बिखरे
बालों का घोंसला ढोते,
नंगे पाँव , दोरंगे फटे जूते पहने
मटमैली पोटली को
छाती से चिपकाये
अनमोल खजाने सा,
निर्निमेष ताकते
आते जाते लोगों को,
खुद में गुम कहीं
फेंकी गयी जूठन ढूँढते
निरूद्देश्य जीवन ढोते,
मासूम बिलबिलाते बच्चे
कचरे के ढेर में
खुशियाँ बीनते,
आवारा कुत्तों के संग
पत्तलों को साझा करते
खिलने से पहले मुरझाता बचपन,
सीने से कुपोषित बच्चे चिपकाये
चोर निगाहों से इधर उधर देखती
अधनंगी साँवली देह छुपाती
लालची,चोर का तमगा लगाये
बेबस लाचार औरतें,
पेट कमर पर चिपकाये
एक एक कदम घसीटते
ज़िदगी की साँसें गिनते,
कब्र में पैर लटकाये
वक्त की मार सहते असहाय बूढ़े ,
चारकोल के मौन सड़क
किनारों पर खडे
धूल, गर्द सें सने पेड़,
मैदानों के कोने में उगी घास
राह के कंकड़
की तरह उपेक्षित,
ये बेमतलब के लावारिस लोग
रब ने ही बनाए है,
शायद, हाथों में इनके
तकदीर की लकीर
खींचना भूल गया है।
जी चाहता है,
काँच के किसी जादुई टुकड़े से
हर एक के हथेलियों में
पलक झपकते खींच दूँ
खुशियों भरी तकदीर की रेखा।

                                #श्वेता🍁

Sunday, 17 September 2017

साथ तुम्हारे हूँ


निर्मल,कोमल, उर प्रीत भरी

हूँ वीतरागी,शशि शीत भरी,
मैं पल पल साथ तुम्हारे  हूँ।

रविपूंजों की जलती ज्वाला
ले लूँ आँचल में,छाँव करूँ,
कंटक राहों के चुन लूँ सारे
जीवन के भँवर में नाव बनूँ,

हर बूँद नयी आशा से भरी
मैं पल पल साथ तुम्हारे हूँ।

जीवन पथ के झंझावात में
थाम हाथ, तेरे साथ चलूँ
जब सूझे न कोई राह तुम्हें
जलूँ बाती, तम प्रकाश भरूँ,

घन निर्मल पावन प्रेम भरी
मैं पल पल साथ तुम्हारे हूँ।

क्या ढूँढ़ते हो तुम इधर उधर
न मिल पाऊँ जग बंधन में,
नयनों से ओझल रहती हूँ
तुम पा लो हिय के स्पंदन में,

जीवनदायी हर श्वास भरी
मैं पल पल साथ तुम्हारे हूँ।

       श्वेता🍁

Friday, 15 September 2017

तुम ही तुम


तुम ही तुम छाये हो ख़्वाबों ख़्यालों में
दिल के शजर के पत्तों में और डालों में

लबों पे खिली मुस्कान तेरी जानलेवा है
चाहती हूँ दिल टाँक दूँ मैं तुम्हारे गालों में

लकीरों के फ़सानें मुहब्बत की कहानी
न जाने क्यूँ उलझी हूँ बेकार सवालों में

है गुम न जाने इस दिल को हुआ क्या है
सुकूं मिलता नहीं अब मंदिर शिवालों में

तेरे एहसास में कशिश ही कुछ ऐसी है 
भरम टूट नहीं पाता हक़ीक़त के छालों में


      #श्वेता🍁

Wednesday, 13 September 2017

हिंदी

बचपन से जाना है हिंदी
भारत के भाल पर बिंदी
राष्ट्र की खास पहचान
हिंदी भाषी अपना नाम
गोरो ने जो छोड़ी धरोहर
उसके आगे हुई है चिंदी
हिंदी भाषा नहीं भाव है
संस्कृति हमारी चाव है
सबको एक सूत्र में जोड़े
कश्मीरी हो या हो सिंधी
न रोटी में न मान है मिलता
शर्म से शीश नवाये छिपता
सभ्य असभ्य के बीच दीवार
खींच दे रेखा अपनी हिंदी
बूढ़ी हो गयी है राष्ट्रभाषा
पूछ रहे अंतिम अभिलाषा
पुण्य तिथि पर करेंगें याद
थी सबसे प्यारी अपनी हिंदी
न जाने अंग्रेज़ी तो अपमान है
देश में हिंदी की कैसी  शान है
न लौटेंगे दिन वो सुनहरे फिर
जब कभी गर्व से कह पाये हम
हिंदी भारत के माथे की बिंदी

       #श्वेता🍁

Monday, 11 September 2017

चाँद

*चित्र साभार गूगल*
मुक्तक

चाँद आसमान से बातें करता ऊँघने लगा
अलसाकर बादलों के पीछे आँखें मूँदने लगा
नीरवता रात की मुस्कुरायी सितारों को चूमकर
ख्वाबों मे हुई आहट फिजां में संगीत गूँजने लगा
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चाँदनी रातों को अक्सर छत पे चले जाते है
वो भी देखते होगे चंदा सोच सोच मुस्कुराते है
पलकों के पिटारे मे बंद कर ख्वाब नशीले
रेशमी यादों के आगोश में गुम हम सो जाते है
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झर झर झरती चाँदनी मुझसे है बतियाए
वो बैठा तेरे छाँव तले चँदनियाँ उसको भाए
गुन गुन करते पवन झकोरे तन मेरा छू जाए
उसकी याद की मीठी सिहरन मन मेरा बौराए
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चाँदनी के धागों से स्याह आसमान पे पैगाम लिखा है
दिल की आँखों से पढ़ लो संदेशा एक खास लिखा है
पी लो धवल चाँद का रस ख्यालों के वरक लपेटकर
सुनहरे ख्वाब मे मुस्कुराने को अपने एहसास लिखा है

          #श्वेता🍁




Sunday, 10 September 2017

ज़िदगी

हाथों से वक़्त के रही फिसलती ज़िदगी
मुट्ठियों से रेत बन निकलती ज़िदगी

लम्हों में टूट जाता है जीने का ये भरम
हर मोड़ पे सबक लिए है मिलती ज़िदगी

दाखिल हुये जज़ीरे में एहसास है नये
पीकर के आब-ए-इश्क है मचलती ज़िदगी

मीठी नहीं हैं उम्र की मासूम झिड़कियाँ
आँखों की दरारों से आ छलकती ज़िदगी

करने लगी तालाब पे आबोहवा असर
मछलियों की साँस सी तड़पती ज़िदगी

बिकने लगे मुखौटे भी हर इक दुकान पर
बेमोल लगी मौत में बदलती ज़िदगी

आते नहीं परिंदे भी जबसे हुई ख़िज़ाँ
सूखे शजर की साँस-साँस ढलती ज़िंदगी

       #श्वेता🍁

Friday, 8 September 2017

मानवता की तलाश


धर्म,जातिऔर पार्टी के
आधार पर कर्मों को
अपने हिसाब से
विचारों के तराजू पर
व्यवस्थित कर तोलते,
एक एक दाने को 
मसल मसल कर
कंकड़ ढूँढते, 
पाप पुण्य सही गलत
के बही खाते में
जोड़ घटाव करते,
किसी के जीवन के
अंत पर अट्टहास करते
नर से पिशाच मे बदलते मानव,
इंसानियत से सरोकार नहीं
पहनकर खाल भेड़ की
निर्दयी रक्त पिपासु भेड़िये,
क्रांति की आड़ में 
जलाते देश का सुकून
धर्मग्रंथ का चश्मा पहने,
पकड़े दृढ़ संकल्प का चाकू
इंसान को कंकाल मे बदलने का,
पीठ पर बाँध कर चलते
सच की बुझी हुई मशालें
उठती आवाज़ों को बंद कर
कब्रों की लिजलिजी मिट्टी में
ठोककर ख़ामोशी की कील
ढ़ोग की श्रद्धांजलि चढ़ाते,
बदलते ज़माने के नगाड़े 
की कानफोडू आवाज़ में
बेबस,लाचारों के निरर्थक नारे,
 जुलूस में कुचली रोटियों को
चुनने में लहुलुहान मनुष्यता,
मानवता की तलाश में आज
टटोलते है पत्थर बने इंसानों
की सोयी ज़मीरों को।

    #श्वेता

साझा संकलन 'सबरंग क्षितिज' में प्रकाशित।

Thursday, 7 September 2017

मोहब्बत की रस्में

*चित्र साभार गूगल*

मोहब्बत की रस्में अदा कर चुके हम
मिटाकर के ख़ुद को वफ़ा कर चुके हम

इबादत में कुछ और दिखता नहीं है

सज़दे में उन को ख़ुदा कर चुके हम

ये  कैसी  ख़ु
मारी  में  भूले  ज़माना
कितनों को जाने खफ़ा कर चुके हम

बड़े बेरहम,बेमुरव्वत हो जानम

शिकवा ये कितनी दफ़ा कर चुके हम

जाता नहीं दर्द दिल का है भारी

हकीमों से कितनी दवा कर चुके हम


      #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...