Tuesday, 21 November 2017

एक लड़की.......कथा काव्य

सारी दुनिया से छुप- छुपकर वो ख़ुद  से बातें करती थी
नीले नभ में चिड़ियों के संग बहुत दूर उड़ जाती थी
बना के मेघों का घरौंदा हवा में ही वो फिरती थी
रंग-बिरंगे सुमनों के गाँव एक तन्हा लड़की रहती थी।

एक दिन एक मुसाफ़िर आया उसके सूने आँगन में
तितली बन वह उड़ने लगी लाल फूलों के दामन में,
जी भर के वो ख़ूब नहायी नेह के रिमझिम सावन में
सब तन्हाई वह भूल गयी उस राहगीर मनभावन में,

वो हंसता वो हंसती वो चुप हो जाए रोती थी
वो रूठे सब जग सूना वो डाँटे ख़ुश होती थी।
यूँ तो वो बडी़ निडर पर उसको खोने से डरती थी
उसको मिलने की ख़ातिर वो सारी रात न सोती थी,

एक दिन,
उस लड़की को छोड़ कर चुपके से मुँह मोड़ गया,
था तो एक मुसाफ़िर ही, उसको तो वापस जाना होगा,
उसकी दुनिया के लोगों में फिर उसको खो जाना होगा,
कहकर गया 'थामे रहो आस की डोर वापस मैं आऊँगा'

उस लड़की को पगली कहता था वो 
आज भी वह पागल लड़की पागल-सी फिरती है
हर फूल से अपने बाग़ों के उसकी बातें करती है
हवा को छू-छूकर उसको महसूस वो करती है
जब सारा जग सो जाता वो चंदा के संग रोती है
भींगी पलकों से राह तके एक आहट को टोहती है,
कोई संदेशा आया होगा पागल बस ये कहती है
जीवन जीने की कोशिश में पल-पल ख़ुद ही से लड़ती है,
हर धड़कन में गुनती है पागल, हर एहसास को पीती है,
नीम अंधेरे तारों की छाँव में आज भी बैठी मिलती है,
साँझ की डूबती किरण-सी वो बहुत उदास-सी रहती है,
न हंसती न मुस्काती है बस उसका रस्ता वो तकती है,
वो पागल आज भी उन यादों को सीने से लगाये जीती है।
सिसक-सिसककर आठ पहर अपने ही आँसू पीती है। 



           #श्वेता🍁

Monday, 20 November 2017

पत्थर के शहर में


पत्थर के शहर में शीशे का मकान ढूँढ़ते हैं।
मोल ले जो तन्हाइयाँ ऐसी एक दुकान ढूँढ़ते हैं।।

हर बार खींच लाते हो ज़मीन पर ख़्वाबों से,
उड़ सकें कुछ पल सुकूं के वो आसमां ढूँढ़ते हैं।

बार-बार हक़ीक़त का आईना क्या दिखाते हो,
ज़माने के सारे ग़म भुला दे जो वो परिस्तां ढूँढ़ते हैं।

जीना तो होगा ही जिस हाल में भी जी लो,
चंद ख़ुशियों की चाह लिए पत्थर में जान ढूँढ़ते हैं।

ठोकरों में रखते हैं हरेक ख़्वाहिश इस दिल की,
उनकी चौखट पे अपने मरहम का सामान ढूँढ़ते हैं।


    #श्वेता🍁

Sunday, 19 November 2017

दो दिन का इश्क़


मेरी तन्हाइयों में
तुम्हारा एहसास
कसमसाता है,
तुम धड़कनों में
लिपटे हो
मेरी साँसें बनकर।
बेचैन वीरान
साहिल पे बिखरा
कोई ख़्वाब,
लहर समुन्दर की
पलकों को
नमकीन करे।
सोचा न सोचूँ तुम्हें
ज़ोर ख़्यालों पर
कैसे हो,
तुम फूल की ख़ुशबू
भँवर मन
मेरा बहकता है।
दो दिन का
तेरा इश्क़ सनम
दर्द ज़िंदगीभर का,
फ़लसफ़ा
मोहब्बत का
समझ न आया हमको।
रात के आग़ोश में
संग चाँदनी के
ख़ूब रोया दिल,
सुबह की पलकों पे
शबनमी क़तरे
गवाही देते।







Thursday, 16 November 2017

ख्याल


साँझ की
गुलाबी आँखों में,
डूबती,फीकी रेशमी
डोरियों के
सिंदूरी गुच्छे,
क्षितिज के कोने के
स्याह कजरौटे में
समाने लगे,
दूर तक पसरी
ख़ामोशी की साँस,
जेहन में ध्वनित हो,
एक ही तस्वीर
उकेरती है,
जितना  झटकूँ
उलझती है
फिसलती है आकर
पलकों की राहदारी में
ख्याल बनकर।

Tuesday, 14 November 2017

चकोर


सम्मोहित मन
निमग्न ताकता है,
एकटुक झरोखे से
मुंडेर की अलगनी पर 
बेफिक्र लटके
अभ्रख के टुकड़े से
चमकीले चाँद को,
पिघलती चाँदनी 
की बूँदों को पीने को
व्याकुल
हृदय चकोर।
जानता है 
मुमकिन नहीं छू पाना
एक कतरा भी
उंगली के पोर से भी
फिर भी अवश हो
बौराया चकोर
चाँद की बेपरवाही
भूलकर
बूँदभर चाँदनी के लिए
सिसकता है,
बंधा अपनी सीमाओं से
सुरमई रात के
ख्वाब का भरम टूटने तक।

      #श्वेता🍁

Monday, 13 November 2017

किन धागों से सी लूँ बोलो

मैं कौन ख़ुशी जी लूँ बोलो।
किन अश्क़ो को पी लूँ बोलो।
बिखरी लम्हों की तुरपन को
किन धागों से सी लूँ बोलो।

पलपल हरपल इन श्वासों से
आहों का रिसता स्पंदन है,
भावों के उधड़े सीवन को,
किन धागों से सी लूँ बोलो।

हिय मुसकाना चाहे ही ना
झरे अधरों से कैसे ख़ुशी,
पपड़ी दुखती है ज़ख़्मों की,
किन धागों से सी लूँ बोलो।

मैं मना-मनाकर हार गयी
तुम निर्मोही पाषाण हुये,
हिय वसन हुए है तार-तार,
किन धागों से सी लूँ बोलो

भर आये कंठ न गीत बने
जीवन फिर कैसे मीत बने,
टूटे सरगम की रागिनी को,
किन धागों से सी लूँ बोलो।

    श्वेता🍁

Sunday, 12 November 2017

कविताएँ रची जाती.....

मन के विस्तृत
आसमान पर
भावों के पंछी
शोर मचाते है,
उड़-उड़ कर
जब मन के सारे
मनकों को फैलाते हैं,
शब्दों के बिखरे
मोती चुन-चुनकर
कोरे-सादे पन्नों पर,
तब भाव उकेरे जाते हैं।
रोते-हँसते,गाते-मोहते,
मन जिन गलियों से 
गलियों से गुजरता है
उन गली के खुले मुंडेरों पर
सूरज-चंदा को टाँक-टाँक
नग जड़ित तारों की
झिलमिल चुनरी में
जुगनू के नाज़ुक पंखों पर 
जलते बुझते तब,
दिवा-रात के स्वप्नों को
कविताओं के शब्द बनाते हैं,
बचपन,यौवन की धूप-छाँव
प्रौढ़,बुढ़ापे से भरा गाँव,
बहते जीवन लहरों की नाव
देख के तन के चीथड़ों को,
जब पलकें पनियाती है
चलते ढलते लम्हों को,
शब्दों की स्याही में डुबाकर,
तब कविताएँ रची जाती है।

     #श्वेता🍁

Monday, 6 November 2017

तारे जग के


तारे जग के नन्हे-नन्हें
झिलमिल स्वप्न हमारे

चाहते है हम छूना नभ को
सतरंग में रंगना बादल को
सूरज को भरकर आँखों में
हम हरना चाहते है तम को

भट्टी के तापों से झुलसे
कालिख लिपटे हाथों में
शीतलता भर चाँदनी की
हम सोना चाहते फूलों पर

कोमल मन के अंकुर हम
जरा प्रेम की बारिश कर दो
जलते जीवन की मरुभूमि में
अपनेपन की छाया भर दो

कंटक राह के कम नहीं होगे
जीवनपथ पर जीवन पर्यंत
मिल जाये गर साथ नेह के
खिलखिलायेे हम दिग्दिगंत

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...