Wednesday, 7 November 2018

आस का नन्हा दीप


दीपों के जगमग त्योहार में
नेह लड़ियों के पावन हार में
जीवन उजियारा भर जाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

अक्षुण्ण ज्योति बनी रहे
मुस्कान अधर पर सजी रहे
किसी आँख का आँसू हर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

खेतों की माटी उर्वर हो
फल-फूलों से नत तरुवर हो
समृद्ध धरा को कर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ 

न झोपड़ी महल में फर्क़ करूँ
कण-कण सूरज का अर्क मलूँ
तम घिरे तो छन से बिखर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

फौजी माँ बेटा खोकर रोती है
बेबा दिन-दिनभर कंटक बोती है
उस देहरी पर खुशियाँ धर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

जग माटी का देह माटी है
साँसें जलती-बुझती बाती है
अबकी यह तन ना नर पाऊँ
मैं आस का नन्हा दीप बनूँ

©श्वेता सिन्हा

sweta sinha जी बधाई हो!,

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Saturday, 3 November 2018

माँ हूँ मैं


गर्व सृजन का पाया
बीज प्रेम अंकुराया
कर अस्तित्व अनुभूति 
सुरभित मन मुस्काया 

स्पंदन स्नेहिल प्यारा
प्रथम स्पर्श तुम्हारा
माँ हूँ मैं,बिटिया मेरी
तूने यह बोध कराया

रोम-रोम ममत्व कस्तूरी 
जीवन की मेरी तुम धुरी
चिड़िया आँगन किलकी
ऋतु मधुमास घर आया

तुतलाती प्रश्नों की लड़ी
मधु पराग फूलों की झड़ी 
"माँ" कहकर बिटिया मेरी
माँ हूँ यह बोध कराया

नन्हें पाँव की थाप से डोले
रूनझुन भू की वीणा बोले
थम समीर छवि देखे तेरी
ठिठका इंद्रधनुष भरमाया

जीवन पथ पर थामे हाथ
भरती डग विश्वास के साथ
शक्ति स्वरुपा कहकर बिटिया
"माँ" का सम्मान बढ़ाया

आशीष को मन्नत माने तू
सानिध्य स्वर्ग सा जाने तू
उज्जल,निर्मल शुभ्र लगूँ
मुझे गंगा पावन बतलाया

जगबंधन सृष्टि क्या जाने तू?
आँचल भर दुनिया माने तू
स्त्रीत्व पूर्ण तुझसे बिटिया
माँ हूँ मैं, तूने ही बोध कराया

--श्वेता सिन्हा

sweta sinha जी बधाई हो!,


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Monday, 29 October 2018

मन मेरा तुमको चाहता है



गिरह प्रश्न सुलझा जाओ
प्रियतम तुम ही समझा जाओ
क्यूँ साथ तुम्हारा भाता है?
 नित अश्रु अर्ध्य सींचित होकर
प्रेम पुष्प हरियाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

मन से मन की नातेदारी
व्यथा,पीर हिय फुलकारी
उर उपवन के तुम प्रीत गंध
मोहिनी डोर कैसा ये बंध?
पलभर साथ की चाह लिये
सहमा-सहमा मृग आह लिये
छू परछाई अकुलाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

कोने में छत की साँझ ढले
बूँद-बूँद रिस चाँद गले
सपने आँचल रखे गिन-गिन
क्यूँ भाव तरल बरसे रिम झिम?
स्मृति पटल मैं बंद करुँ
आँच विरह की मंद करुँ
बाती-सा हिय जल जाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

जाने कब मौन में आन बसे
हर खुशी है तुझमें जान बसे
प्रीत कुमुदिनी आस लिये
महके क्यूँ करुणा हास लिये?
अंतस रिसती पिचकारी को
मनभावों की किलकारी को
शब्दों में तोला जाता है
क्यूँ मन तुमको ही चाहता है?

---श्वेता सिन्हा





Tuesday, 23 October 2018

शरद पूर्णिमा

रिमझिम-रिमझिम बरसी चाँदनी,
तन-मन,रून-झुन, बजे रागिनी।
पटल नील नभ श्वेत नीलोफर,
किरण जड़ित है शारद हासिनी।

परिमल श्यामल कुंतल बादल,
मध्य विहसे मृदु केसरी चंदा।
रजत तड़ाग से झरते मोती, 
छल-छल छलके सुरभित नंदा

जमना तट कंदब वट झुरमुट,
नेह बरसे मधु अंजुरी भर-भर।
बिसराये सुध केशव-राधा,
रचे रास मधुकुंजन गिरधर।

बोझिल नयन नभ जग स्वप्निल,
एकटुक ताके निमग्न हो चातक।
चूमे सरित,तड़ाग,झील नीर लब,
ओस बन अटके पुष्प अधर तक।

रजत थाल जाल दृग मोहित,
दमदम दमके नभ भव करतल 
पूरण कामना हिय चित इच्छित, 
अमित सुधा रस अवनि आँचल।

    #श्वेता सिन्हा


Sunday, 14 October 2018

मन उलझन


एकाकीपन की बेला में
हिय विरहन-सा गाता है
धागे भावों के न सुलझे
मन उलझन में पड़ जाता है

जीवन का गणित सरल नहीं
चख अमृत घट बस गरल नहीं
पीड़ा की गाँठों को छूकर प्रिय
नेह बूँद सरस भर जाता है
तृषित भ्रमर की लोलुपता 
मन उलझन में पड़ जाता है

समय लहर की अविरल धारा
उर तृप्ति पल गिन-गिन हारा
सुख-दुख,कंटक जाल घिरा
पथ शशक समझ न पाता है
तब अनायास पाकर साथी 
मन उलझन में पड़ जाता है

मन चाहे मन को बाँधना क्यूँ ?
कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
जी की असीमित इच्छाओं से
चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
पर तुम्हें सामने पाता जब भी
मन उलझन में पड़ जाता है

जग जीवन का औचित्य है क्या?
मनु जन्म, मोक्ष,सुकृत्य है क्या?
आना-जाना फेरा क्यूँ है?
मन मूढ़ मति मेरा क्यूँ है?
राग-विराग मय पी-पीकर
मन उलझन में पड़ जाता है

--श्वेता सिन्हा

Wednesday, 10 October 2018

अनुभूति

माँ का ध्यान हृदय सदा
शान्ति सुधा बरसाती
मलयानिल श्वासों में घुल
हिया सुरभित कर जाती

मौन मगन दैदीप्त पुंज 
मन भाव विह्वल खो जाता
प्लावित भावुक धारा का
अस्तित्व विलय हो जाता

आतपत्र आशीष वलय
रक्षित जीवन शूल,प्रलय
वरद-हस्त आशंकाओं से
शुद्ध आत्मा मुक्त निलय

आँचल छाँह वात्सल्यमयी 
भय-दुःख, मद-मोह, मुक्त
अनुभूति,निर्मल निष्काम
शुभ्र पलछिन रसयुक्त

चक्षु दिव्य तुम ज्ञान गूढ़ का
जीवन पथ माँ भूल-भूलैय्या
लहर-लहर में भँवर जाल
भव सागर पार करा दे नैय्या

यश दिगंत न विश्वविजय
माँँ गोद मात्र वात्सल्य अटूट
जग बंधन से करो मुक्त अब
पी अकुलाये जी कालकूट

-श्वेता सिन्हा




Saturday, 6 October 2018

जीवन रण में


 कुरुक्षेत्र के जीवन रण में
गिरकर फिर चलना सीखो 
कंटक राहों के अनगिन सह
छिलकर भी पलना सीखो

लिए बैसाखी बेबस बनकर
कुछ पग में ही थक जाओगे
हिम्मत तो करो अब पाँव तले
हर डर को तुम दलना सीखो

 पट बिन नयनों के खोले ही
कहते हो तम का पहरा है
तुम आग हो एक चिंगारी हो
जगमग-जगमग जलना सीखो

 खोना क्यों दीदा रो-रोकर
न विगत लौट फिर आयेगा
बीत रहा जो उस क्षण के
रंगों में घुल ढलना सीखो

पिघल धूप में जाते हो 
क्यों फूलों सा मुरझाते हो
सुनो मोम नहीं फौलाद बनो
नेह आँच में ही गलना सीखो

सलवटों में उमर की छुपी हुई
दबी घुटी हुई कुछ निशानियाँ 
पूरा करना हो स्वप्न अगर 
गले हौसलों के मिलना सीखो

-श्वेता सिन्हा

Sunday, 30 September 2018

गहरा रंग


उँघती भोर में
चिड़ियों के कलरव के साथ
आँखें मिचमिचाती ,अलसाती
चाय की महक में घुली
किरणों की सोंधी छुअन
पत्तों ,फूलों,दूबों पर पसरे
पनीले इंद्रधनुष,
सुबह की ताज़गी के
सारे रंग समेटकर
हल्दी,नमक,तेल,छौंक,बघार,
में डालकर
अक़्सर नज़र अंदाज़
कर देती है
बहार का रंग,
दौड़ती-भागती,
पिटारों से निकालकर
अलगनी पर डालती
कुछ गीली,सूखी यादों को,
 श्वेत-श्याम रंग की सीली खुशबू
को नथुनों में भरकर
 कतरती,गूँथती,पीसती,
अपने स्वप्नों के सुनहरे रंग,
पतझड़ को बुहारकर
देहरी के बाहर रख देती
हवाओं की सरसराहट
मेघों की आवारगी,
खगों,तितलियों,
भँवरों का गीत
टेसु के फूल,
हरसिंगार की लालिमा,
केसरिया गेंदा,सुर्ख़ गुलाब
महकती जूही
चाँदनी की स्निग्धता,
गुनगुनी धूप की मदमाहट,
बसंत की सुगबुगाहट,
रिमझिम बूँदों सी बरसती
रंगों को मिलाकर
एक चुटकी सिंदूर के रंग में
 सजाती है
अपने माथे पर,
अपने तन-मन पर
 खिले सारे रंगों को निचोड़कर
 समर्पण की तुलिका को
 डुबो-डुबोकर भाव भरे पलों में
 पुरुष की कामनाओं के कैनवास पर
 उकेरती है अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति
हल्के रंगों से रंगकर
अपने व्यक्तित्व
 उभारकर चटख रंगों को
 रचती है
 पुरुषत्व का गहरा रंग।

 -श्वेता सिन्हा


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...