Sunday, 28 April 2019

तुझमें ही...मन#१

बरबस ही सोचने लगी हूँ
उम्र की गिनती भूलकर
मन की सूखती टहनियों पर
नरम कोंपल का अँखुआना

ख़्यालों के अटूट सिलसिले
तुम्हारे आते ही सुगबुगाते,
धुकधुकाते अस्थिर मन का
यूँ ही बात-बेबात पर मुस्कुराना

तुम्हारे एहसास की गंध से मताये
बेज़ान,पंखहीन,स्पंदनहीन पड़़े
बंद मन की झिर्रियों से छटपटाती,
बेसुध तितलियों का मचलना

तुम्हारी हर बात को समेटकर
सीने से लिपटाये हुये घंटों तक
झरोखे,छत,घर के कमरों में फैला
अपने लिये तुम्हारे एहसास चुनना

देर तक तुम्हारे मौन होने पर
बेचैन हो मन ही मन पगलाना
उदास आँखों के सूनेपन में पसरी
तुम्हारी तस्वीरों के रंगों को भरना

सोचती हूँ क्यों एहसास मन के
यूँ मन को भावों से ढके रहते हैं?
बदलते मौसम से बेअसर,बेख़बर
मेरा सिर्फ़ तुझमें ही खोये रहना

#श्वेता सिन्हा

Saturday, 27 April 2019

धूप


तमतमाते धूप का 
बेरंग चेहरा देख
बालकनी के
गमलों में खिलखिलाते
गुलाब,बेली,सदाबहार के 
फूल सहम गये,गर्दन झुकाये,
बैठक की काँच की
खिड़की से होकर
 परदों की झिर्रियों से 
 साधिकार सोफे पर
आकर पैर फैलाते 
धूप को देखकर
हवा का झोंका जोर से
बड़बड़ाया,परदे हिलाकर,
फड़फड़ाते किताब और 
अख़बार के पन्नों के शोर
से चिड़चिड़ाया धूप
चुपचाप उठकर
बाहर आँगन में चला आया।
तेज़ क़दमों से चढ़कर
बरगद की फुनगी पर
शाखों की बाहों के मख़मली घेरे में
लेटे,अधलेटे,चहकते
परिदों को सताने लगा,
दिन भर गरम बूँदों की
पिचकारियों से 
सड़कों,बागों,नदियों को
झुलसाता रहा
भटकता रहा पूरा दिन आवारा,
साँझ की दस्तक सुनकर
बेडरूम की खिड़की के समीप
बोगनबेलिया की झाडियों 
के नीचे बिछाकर
गद्देदार मौन का बिस्तर
ओढ़कर स्याह चादर, बेख़बर
नींद के आगोश में खो गया,
मुँह अंधेरे कोयल और बुलबुल की
मीठी रियाज़ सुनकर कुनमुनाया
इधर-उधर करवट बदलता
गौरेया की चीं-चीं,चूँ-चूँ पर
अंगड़ाई लेकर
आँखें मलता,केसरी पलकें 
खोलकर बैठा है 
तुलसी के बिरवे की गीली मिट्टी पर
पुरवाई के धप्पे से चिंहुका
अब शरारत से 
धमा-चौकड़ी मचायेगा
लुका-छिपी खेलेगा धूप
सारा दिन। 

#श्वेता सिन्हा
२७ अप्रैल "१९"

Wednesday, 24 April 2019

पुकार

पृथ्वी दिवस पर मेरी एक रचना 
पत्रिका लोकजंग में-
पुकार
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पेड़ों का मौन रुदन सुनो
अनसुना करो न तुम साथी
हरियाली खो जायेगी 
तो गीत भी होंगे गुम साथी

अस्तित्व खो रहा गाँवों का
ताल,तल्लैया सूख रही
कंक्रीट के बढ़ते जंगल
मेड़ खेत की टूट रही
प्रगति के नाम दुहाते
पहाड़ों पर हुआ जुलुम साथी

सूरज का अग्निबाण चला
भस्म हो रही शीतलता
पिघल रहे हिमखंड अनवरत
खारे जल में है विह्वलता
असमय मेघ का आना-जाना
है प्रकृति विनाशी धुन साथी

नदियाँ गंदी नाला बनती
है बूँद-बूँद अब संकट में
भू-जल सोते सूख रहे 
प्यास तड़पती मरघट में
सींच जतन कर कंठ धरा के
बादल से बरखा चुन साथी

हवा हुई अब ज़हरीली
घुटती साँसों पर पहरे हैं
धुँधलाये नभ में चंदा तारे
 बादल के राज़ भी गहरे हैं
चिड़ियों की चीं-चीं यदा-कदा
खोई वो भोर की धुन साथी

घने वन,नग,झर-झर झरने
वन पंखी,पशुओं के कोलाहल
क्या स्मृतियों में रह जायेंगे? 
पूछे धरती डर-डर पल-पल
आने वाली पीढ़ी ख़ातिर
प्रकृति उपहार तो बुन साथी?

#श्वेता सिन्हा

Tuesday, 23 April 2019

धरती


हरी-भरी,फलती-फूलती
गर्भिणी धरती की
उर्वर कोख़ उजाड़कर
बंजर नींव में
रोप रहे हम
भावी पीढ़ियों के लिए
रेतीला भविष्य।

नभ से कुछ अंगुल कम
उन्नत छातियों से 
बर्फीले आवरण 
उतारकर 
लज्जित,उदास शिखरों
को फोड़कर बुन रहे हैं
अकाट्य कवच,
लोहे के गगनचुंबी स्वप्न।

अठखेलियाँ करती,
किलकती,गुनगुनाती
पवित्र धाराओं में
धोकर,बहाकर
अपनी कलुषिता, 
हम निष्कलुष हुये,
गंदगी के बोझ से थकी
क्षीण,जर्जर,
मरणासन्न नदियों की
देह के ऊपर
मंत्र फूँककर
जिलाने का ढ़ोंग!
क्या लौटा पायेंगी
जीवन का अमृत..?

बरसों की कठिन 
तपस्या से
धरती को प्राप्त
अनमोल उपहारों का
निर्दयता से प्रयोग करते हैं
अपनी सुविधानुसार,
दूहते...!
कलपती,सिसकती,
दिन-प्रतिदिन
खोखली होती
धरती,
 अपने गर्भ में ही 
मार डाले गये भ्रूणों के
अबोले शाप की अग्नि में
झुलसने से
कब तक बचा पायेगी
मनुष्य का अस्तित्व ...?

#श्वेता सिन्हा










Sunday, 21 April 2019

अमलतास

अप्रैल माह के तीसरे सप्ताह की एक सुबह 
पार्क के कोने में मौन तपस्वी-सा खड़े अमलतास
के पेड़ पर फूटते पीले फूलों में आँखें उलझ गयीं।
प्रकृति का संसार भी विचित्र है न कितना? हर ऋतु का स्वागत और श्रृंगार कितनी तन्मयता से करती है।  खूबसूरत चटख पीले रंग के सुंदर जालों की कारीगरी अंचभित करती है। 
आपने भी देखा होगा न अपने शहर में अमलतास?
भाग-दौड़,जीने की मशक्कत,जीवन की जटिलताओं के बीच गुम होकर, शीशे के झरोखे,भारी परदों,वातानुकूलित कमरों में बंद होते हम आज प्रकृति से दूर हो रहे हैं।
आप भी पढ़िये अमलतास पर फूटते मोहक फूलों को देखकर, महसूस कर लिखी मेरी कुछ पंक्तियाँ

अमलतास
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आहट पाकर गर्मी की
एक पेड़ हौले-से शरमाता है
गरम हवा संग अंगड़ाई ले
पत्तियों का दुपट्टा गिराता है

पत्रविहीन शाखों ने पहने
दिव्य वस्त्र अलंकरण खास
किस करघे से काता गया
कुरता पीला,मखमली लिबास

प्रकृति की कूची अनोखी
रचाये ऋतु अनूठा चित्र
धू-धू दिन के कैनवास पर 
पीत तितलियाँ झुंड विचित्र

ताप संग करता परिहास
सड़क किनारें बाँह पसारे
फानूस की झालर अंगूरी
मुग्ध नयन यह रुप निहारे

पथिक थका जो पास है आता
करता बालक-सा मृदुल हास
चुपके से पीला रंग लगाकर
कितना खुश होता अमलतास।

#श्वेता सिन्हा


Thursday, 18 April 2019

मैं समाना चाहती हूँ


मैं होना चाहती हूँ
वो हवा,
जो तुम्हारी साँसों में
घुलती है 
हरपल जीवन बनकर
निःशब्द!


जाड़ों की गुनगुनी धूप,
गर्मियों के भोर के
सूरज का मासूम चेहरा
वो उजाला
जो तुम्हारी 
आँखों को चूमता है
हर दिन।


बादल का वो
नन्हा-सा टुकड़ा 
जो स्वेद में भींजते
धूप से परेशान
तुम्हारे थकेे बदन को
ढक लेता है
बिना कुछ कहे।


बारिश की 
नन्हींं-नन्हीं लड़ियाँ
जो तुम्हारे मुखड़े पर
फिसलकर
झूमती है इतराकर।


तुम्हारी छत के
मुंडेर से,
झरोखे से झाँकते
आसमान के स्याह
चुनरी पर गूँथे
सितारों की
भीड़ में गुम
एक सितारा बन
तुम्हें देखना चाहती हूँ
नींद में खोये
सारी रात
चुपचाप....


जल की स्वाति-बूँद
बनकर
कंठ में उतरकर
तुम्हारे अंतर में
विलीन होना चाहती हूँ।


तुम्हारे आँगन की माटी
जिसे तुम्हारे पाँव 
कोमलता से दुलारते हैं
अनजाने ही
वो फूल जिसकी खुशबू
तुम कभी भुला नहीं पाते।


सुनो! मैं निःशब्द,मौन
समाना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
प्रकृति के 
हर उस कण की तरह
जो मौजूद है साथ तुम्हारे
शाश्वत
जन्म-जमांतर।

#श्वेता सिन्हा




Tuesday, 16 April 2019

गर्मी के दिन


राग-रंग बदला मौसम का
बदले धूप के तेवर
रुई धुन-धुन आसमान के
उड़ गये सभी कलेवर

सूरज की पलकें खुलते ही
लाजवंती बने पेड़ विशाल
कोयल कूके भोर-साँझ को
ताप घाम से रक्तिम गाल

पीत वसन पहने मुस्काये
झुमके झूमर अमलतास
चंदन-सी शीतल लगती
गुलमोहर की मीठी हास

टप-टप चुये अँचरा भींजे
अकुलाये दुपहरी न बीते
धूप-छाँव के खेल से व्याकुल
कुम्हलाई-सी कलियाँ खीझे

कंठ सूखते कूप,ताल के 
क्षीण हुई सरिता की धारा
लहर-लहर मरुआये रोये
निष्ठुर तपन है कितना सारा

साँझ ढले सिर से अवनि के
सूरज उतरा तपन मिटाने  
छुप गया सागर की लहरों में
ओढ़ चाँदनी नींद बहाने

फूल खिले नभ पर तारों के
महकी बेला अंजुरी जोड़े
सारी  रात चंदा बतियाये
नींद की परियाँ पाँखें खोले

नीम निबौरी चिडिया बोली
साँस ऋतु की पल-पल गिन
चार दिवस फुर्र से उड़ जाये
चक्ख अमिया-सी गर्मी के दिन।

#श्वेता सिन्हा

Friday, 12 April 2019

मैं रहूँ या न रहूँ


कभी किसी दिन
तन्हाई में बैठे
अनायास ही
मेरी स्मृतियों को 
तुम छुओगे अधरों से
झरती कोमल चम्पा की
कलियों को
समेटकर अँजुरी से
रखोगे
उसी पिटारे में 
जिसमें 
मेरे दिये नामों-उपनामों की
खनकती सीपियाँ बंद है
तुम्हारी उंगलियों के स्पर्श से
स्पंदित होकर
जब लिपटेगे वो बेतुके नाम 
तुम्हारी धड़कनों से 
कलोल के
मीठे स्वर हवाओं के 
परों पर उड़ - उड़कर
तुम्हें छेड़ेगे
सुनो!
उस पल 
तुम मुस्कुराओगे न?
मैं रहूँ या न रहूँ।

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...