Tuesday, 30 July 2019

मुर्दों के शहर में


सुनो! अब मोमबत्तियाँ मत जलाओ
हुजूम लेकर चौराहों को मत जगाओ
नारेबाज़ी झूठे आँसुओं की श्रंद्धाजलि
इंसाफ़ के नाम पर मज़ाक मत बनाओ

जिस्म औरत का प्रकृति प्रदत्त शाप है 
भोगने की लालसा खदबदाता भाप है
रौंदकर उभारों को,मार करके आत्मा
छद्म नाम की सुर्खियाँ तुम मत सजाओ

सजाकर मंदिरों में शक्ति का वरदान क्यों?
अपनी माँ,बेटी और बहन को ही मान क्यों?
औरत महज जिस्म है पापी दुष्ट भेड़ियों
ओ पशुओं मनुष्य का चेहरा मत लगाओ

बिकाऊ सूचना तंत्र का उच्च टीआर पी
राजनीति का फायदेमंद मूल एमआरपी 
सुविधानुसार इस्तेमाल होती  विज्ञापन
नोंच,खसोट,मौत का मातम मत मनाओ

कौन करेगा आत्मा के बलात्कार का इंसाफ़?
रौंदे गये तन-मन से मवाद रिस रहे बेहिसाब
अंधों की दरिंदगी बहरों की सियासत है
मुर्दों के शहर में ज़िंदगी की पुकार मत लगाओ

#श्वेता सिन्हा

Thursday, 25 July 2019

कैसी होंगी?

कारगिल दिवस(26 जुलाई) वीर सपूतों के नाम 
घर से दूर वतन के लिए प्राण न्योछावर करने को हर पल तैयार
एक सैनिक मन ही मन अपने परिवार के लिए कैसा महसूस करता होगा 
इसे शब्द देने का मेरा छोटा सा प्रयास-


गर्वोन्नत, मैं हूँ सीमा-प्रहरियों से
झूमता बंदूक की स्वर लहरियों से
सोता नहीं मैं जागता मुस्तैद हूँ
मैं सिपाही अकेला ही जुनैद हूँ
माटी तिलक कर मन ही सोचूँ कहीं
बिन मेरे घर की दीवारें कैसी होंगी?

बादलों की तैरती मछलियों से
मैं पूछता हूँ अक्सर तितलियों से
खिलखिलाता बचपने का रंग 
तुतलाती बातूनी परियों का ढंग
मेरे आँगन जो चिड़िया चहक रही
उसकी मुस्कान कैसी होगी?

जेब में रक्खी चिट्ठियों से
पूछता हूँ अपनी हिचकियों से
सावन के झूलों से मुँह फेर जाती
न कज़रा न मेंहदी न चूड़ी सजाती
रह-रहकर अपना दुपट्टा भींगाती 
मेरी याद में मेरी जोगन कैसी होगी?

तपते दिन,चुभती बर्फीली सर्दियों से
पूछता हूँ छूकर अपनी वर्दियों से
मौसमी तीज-त्योहारों की उबासी 
माँ के पैरों का दर्द,बाबा की खाँसी 
थककर निढाल हुई जिम्मेदारियों पर
मेरी छुट्टियों की सौगात कैसी होगी?

 #श्वेता सिन्हा

Monday, 22 July 2019

कोख


स्त्री अपनी पूर्णता 
कोख में अंकुरित,
पल्लवित बीज,
शारीरिक,मानसिक,
जैविक बदलाव
महसूस कर
गर्वित होती है
जो प्रत्यक्ष 
देखा-समझा जा
सकता है।

पर क्या....
आपने महसूस 
किया है कभी
पिता बनते पुरुष की 
अदृश्य कोख
जिसमें पलते हैं
स्त्री की कोख के
समानांतर
अनगिनत,अनगढ़
स्वप्नों के बीज।

अपने अव्यक्त मन की
कोख को सींचकर
नन्हीं आशाओं की
अनछुई लकीरों से
शिशु के भविष्य की
एक-एक कोशिका
प्रतिदिन जोड़ता,गढ़ता
पालता है जतन से
आकार लेने तक।

प्रसव-पीड़ा से 
छटपटाती माँ की तरह
पीकर विष का घूँट
रखकर मान-अपमान परे
संतान की ख़ुशियाँ
जुटाने के लिये 
निरंतर कर्मशील
बिना चीख़े
वो सहता रहता है
सपनेे जन्मने के बाद भी
आजीवन
प्रसव का दर्द।

कोख दृश्य हो कि अदृश्य
एक संतान के लिये
कोख साझा करते
माता-पिता
उसके इर्द-गिर्द
बुनते रहते हैं
अदृश्य कवच
आजीवन
और....
सिलते रहते हैं 
अपनी कामनाओं का
फटा आसमान...। 
गूलते रहते हैं आशीष
सृष्टि की अनदेखी 
परमशक्तियों की तरह...।

 #श्वेता सिन्हा

Thursday, 18 July 2019

चंदन का झूला....


चंदन का झूला हो फूलों भरा पालना
सपनों की परियाँ तुम दिन में भी जागना
नाजुक-सी राजरानी बिटिया हमारी है
सुन लो ओ चंदा तुम जी भर न ताकना

तितली सतरंगी वो घर भर में डोलती
पापा के कांधे झूल कूहू-सा बोलती
कौर-कौर जीवन में भरती मिठास है
बंद पड़ी खुशियों का ताला वो खोलती

रेशम की डोरी वो मखमल का आलना
कुहके तो मन के सब तारों का हालना
चुन-चुन के काँटें मैं अँचरा में भर लूँगी
बिटिया तू पाँव दूब राहों में डालना

निर्मल-सा झरना रुनझुन हवाओं की
सोन चिरैया मेरी सरगम दिशाओं की
बन जाऊँ नजरौटा बिटिया तुम्हारी मैं
लेती रहूँ ख़बर आने वाली बलाओं की

हर क्षण के प्याले में सुख आसव ढालना
दुख हो कि पीड़ा सब एक पल में टालना
तम का अंधियारा न छू पाये साया भी
माथे पर सूरज का झूमर है टाँकना

#श्वेता सिन्हा

Monday, 15 July 2019

सावन

मानसून के शुरुआत में चंद छींटे और बौछार, उसके बाद तो
पूरा अषाढ़ बीत गया बरखा रानी हमारे शहर 
बरसना भूल गयी है।
घटायें छाती हैं उम्मीद बँधती है कि बारिश होगी पर, बेरहम हवायें बादलोंं को उड़ाकर जाने कहाँ ले जाती हैं,  एक भी टुकड़ा नहीं दिखता बादल का, सूना आसमान मुँह चिढ़ाता है और मन उदासी से भर जाता हैंं।
बहुत चिंतित हूँ, 
 सब कह रहे अभी सावन बीता नहीं है देखना न इतनी बारिश होगी कि परेशान हो जाना। मैं अब बेसब्री से बारिश प्रतीक्षा कर रही हूँ,
खूब झमाझम बरसात हो यही दुआ कर रही हूँ,
प्रकृति का कण-कण तृप्त हो जाये।
सावन बारिश का मौसम ही नहीं हैं
सावन उम्मीद है,सपना है,खुशी है,त्योहार-उत्सव है,उमंग-तरंग है,राग-रंग है,सुर-संगीत है,प्रेम-गीत है
मेरी स्मृतियों में सावन 

सावन
----
टप-टपाती मादक बूँदों की
रुनझुनी खनक,
मेंहदी की
खुशबू से भींगा दिन,
पीपल की बाहों में
झूमते हिंडोले,
पेड़ों के पत्तों,
छत के किनारी से
टूटती
मोतियों की पारदर्शी लड़ियाँ
आसमान के
माथे पर बिखरी
शिव की घनघोर जटाओं से
निसृत
गंगा-सी पवित्र
दूधिया धाराएँ
उतरती हैं
नभ से धरा पर,
हरकर सारा विष ताप का
 अमृत बरसाकर
प्रकृति के पोर-पोर में
भरती है
प्राणदायिनी रस
सावन में...।

#श्वेता सिन्हा

Friday, 12 July 2019

तीसरे.पहर

सुरमई रात के उदास चेहरे पर
कजरारे आसमां की आँखों से
टपकती है लड़ियाँ बूँदों की
झरोखे पे दस्तक देकर
जगाती है रात के तीसरे पहर

मिचमिचाती पीली रोशनी में
थिकरती बरखा घुँघरू-सी
सुनसान राहों से लगे किनारों पे
हलचल मचाती है बहती नहर
बुलाती है रात के तीसरे पहर

पीपल में दुबके होगे परिंदें
कैसे रहते होगे तिनकों के घर में
खामोश दरख्तों के बाहों में सिकुड़े
अलसाये है या डरे,पूछने खबर
उकसाती है रात के तीसरे पहर

झोंका पवन का ले आया नमी
उलझ रहा जुल्फों में सताये बैरी
छूकर चेहरा सिहराये बदन
पूछता हाल दिल का रह-रह के
सिलवट,करवट,बेचैन,बसर,
कुहकाती है रात के तीसरे पहर

#श्वेता सिन्हा

Wednesday, 10 July 2019

मौन


तुम्हारे मौन के ईद-गिर्द
परिक्रमा मेरे मन की
ज्यों धुरी में नाचती धरती
टोहती सूरज का पारा

तुम्हारे मौन के सन्नाटे में
मन बहरा,ध्यानस्थ योगी
हर आवाज़ से निर्लिप्त
तुम पुकारो नाम हमारा

मौन में पसरी विरक्ति 
टीसता है,छीलता मन 
छटपटाता आसक्ति में
चाहता नेह का कारा

तुम्हारे मौन से विकल
जार-जार रोता मेरा मन
आस लिये ताकता है 
निःशब्द मन का किनारा

#श्वेता सिन्हा


Saturday, 22 June 2019

बरखा

लह-लह,लह लहकी धरती
उसिनी पछुआ सहमी धरती
सही गयी न नभ से पीड़ा
भर आयी बदरी की अँखियाँ
लड़ियाँ बूँदों की फिसल गयी
टप-टप टिप-टिप बरस गयी  

अंबर की भूरी पलकों में
बदरी लहराते अलकों में
ढोल-नगाड़े सप्तक नाद
चटकीली मुस्कान सरीखी
चपला चंचल चमक गयी
बिखर के छ्न से बरस गयी

थिरके पात शाख पर किलके
मेघ मल्हार झूमे खिलके
पवन झकोरे उड़-उड़ लिपटे
कली पुष्प संग-संग मुस्काये
बूँदें कपोल पर ठिठक गयी 
जलते तन पर फिर बरस गयी

कण-कण महकी सोंधी खुशबू
ऋतु अंगड़ाई मन को भायी
अवनि अधर को चूम-चूम के
लिपट माटी की प्यास बुझायी
गंध नशीली महक गयी
मदिर रसधारा बरस गयी 

व्यथित सरित के आँगन में
बूँदों की गूँजी किलकारी
सरवर तट झूमा इतराया 
ले संजीवनी बरखा आयी
तट की साँसें बहक गयी
नेह भरी बदरी बरस गयी 

क्यारी-क्यारी रंग भरने को
जीवन अमृत जल धरने को
अवनि अन्नपूर्णा करने को
खुशी बूँद में बाँध के लायी
कोख धरा की ठहर गयी
अंबर से खुशियाँ बरस गयी

#श्वेता सिन्हा




मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...