Thursday, 17 October 2019

तुम्हें देख-देखकर


सप्तपदी की कसमों को
व्यावहारिक सारे रस्मों को
मैं घोल के प्रेम में हूँ पीती 
तुम्हें देख-देखकर हूँ जीती 

तुम्हें मोह पाऊँ वो रुप नहीं
हिय प्रेमभरा अर्पण तुमको
सुख-दुख जीवन के पंथ प्रिये
कंटक हो कि पाषाण मिले
निर्झर झर-झर बन हूँ झरती 
तुम्हें देख-देखकर हूँ जीती 

रुप-शृंगार तुमसे प्रियतम
ये रंग-बहार तुम बिन फीका
तुम भुला न दो जग बीहड़ में
कभी सूरज तो कभी चंदा से
स्मृतियों को तुम्हारी हूँ बुनती 
तुम्हें देख-देखकर हूँ जीती 

आजीवन संग की चाह लिये
दिन-रात मनौतियाँ करती हूँ
न नज़र लगे तुम्हें दुनिया की
निर्जल व्रत का टोटका करती
नजरौटा बनकर मैं हूँ फिरती 
तुम्हें देख-देखकर हूँ जीती 

#श्वेता सिन्हा

Thursday, 10 October 2019

सृष्टि

प्रसूति-विभाग के
भीतर-बाहर
साधारण-सा दृष्टिगोचर
असाधारण संसार
पीड़ा में कराहते
अनगिनत भावों से
बनते-बिगड़ते,
चेहरों की भीड़
ऊहापोह में बीतता 
प्रत्येक क्षण
तरस-तरह की मशीनों के
गंभीर स्वर से बोझिल
वातावरण में फैली 
स्पिरिट,फिनाइल की गंध
से सुस्त,शिथिल मन,
हरे,नीले परदों को
के उसपार कल्पना करती 
उत्सुकता से ताकती
प्रतीक्षारत आँखें
आते-जाते
नर्स,वार्ड-बॉय,चिकित्सक
अजनबी लोगों के
खुशी-दुख और तटस्थता 
में लिपटे चेहरों के 
परतों में टोहती
जीवन के रहस्यों और
जटिलताओं को,
बर्फ जैसी उजली चादरों
पर लेटी अनमयस्क प्रसूता
अपनी भाव-भंगिमाओं को
सगे-संबंधियों की औपचारिक
भीड़ में बिसराने की कोशिश करती
अपनों की चिंता में स्वयं को
संयत करने का प्रयत्न करती,
प्रसुताओं की
नब्ज टटोलती
आधुनिक उपकरणों से
सुसज्जित 
अस्पताल का कक्ष
मानो प्रकृति की प्रयोगशाला हो
जहाँ बोये गये 
बीजों के प्रस्फुटन के समय
पीड़ा से कराहती
सृजनदात्रियों को
चुना जाता है
सृष्टि के सृजन के लिए,
कुछ पूर्ण,कुछ अपूर्ण
बीजों के अनदेखे भविष्य
के स्वप्न पोषित करती 
जीवन के अनोखे 
रंगों से परिचित करवाती
प्रसूताएँ.....,
प्रसूति-कक्ष
उलझी पहेलियों
अनुत्तरित प्रश्नों के
चक्रव्यूह में घूमती
जीवन और मृत्यु के
विविध स्वरूप से
सृष्टि के विराट रुप का
 साक्षात्कार है।

#श्वेता सिन्हा

हस्ताक्षर पत्रिका के मार्च अंक में प्रकाशित।
https://www.hastaksher.com/rachna.php?id=2293

Friday, 4 October 2019

प्रभाव..एक सच


देश-दुनिया भर की
व्यथित,भयाक्रांत 
विचारणीय,चर्चित
ख़बरों से बेखबर
समाज की दुर्घटनाओं
अमानवीयता,बर्बरता
से सने मानवीय मूल्यों
को दरकिनार कर,
द्वेष,घृणा,ईष्या की 
ज्वाला में जलते 
पीड़ित मन की
पुकार अनसुना कर
मोड़कर रख देते हैं अख़बार,
बदल देते हैं चैनल..., 
फिर, कुछ ही देर में वैचारिकी
प्रवाह की दिशा बदल जाती है....।
हम यथार्थवादी,
अपना घर,अपना परिवार,
अपने बच्चों की छोटी-बड़ी
उलझनों,खुशियों,जरूरतों और 
मुसकानों में पा लेते हैं
सारे जहाँ का स्वार्गिक सुख
हमारी प्राथमिकताएँ ही तय
करती है हमारी संवेदनाओं
का स्तर
क़लम की नोंक रगड़ने से
हमारे स्याही लीपने-पोतने से
बड़े वक्तव्यों से
आक्रोश,उत्तेजना,अफ़सोस 
या संवेदना की भाव-भंगिमा से
नहीं बदला जा सकता है
 किसी का जीवन
बस दर्ज हो जाती है औपचारिकता।

हाँ, पर प्रेम....।
स्वयं से,अपनों से,समाज से 
देश से,प्रकृति से,जीवन से
भरपूर करते हैं
क्योंकि हम जानते हैं 
हमारी प्रेम भरी भावनाओं का
कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा..,
देश-दुनिया के 
वाद-विवाद,संवाद और
राजनीतिक तापमान पर...।

#श्वेता सिन्हा











नोटः अर्चना कुमारी की एक रचना से प्रेरित। सादर

Tuesday, 1 October 2019

वृद्ध

चित्र साभार: सुबोध सर की वॉल से

वृद्ध
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बुझती उमर की तीलियाँ
बची ज़िंदगी सुलगाता हूँ
देह की गहरी लकीरें
तन्हाई में सहलाता हूँ
समय की पदचाप सुनता
बिसरा हुआ दोहराता हूँ
काल के गतिमान पल में
मैं वृद्ध कहलाता हूँ

मन की ज्योति जल रही
जिजीविषा कुम्हला गयी
पी लिया हर रंग जीवन
शिथिलता जतला गयी
ओस चखकर जी रहा 
ऋतुएँ ये तन झुलसा गयीं
उलीचता अनुभव के मटके
मैं समृद्ध होता जाता हूँ

प्रकृति का नियम अटल 
आना-जाना काल-चक्र है
क्या मिला क्या खो गया
पोपला.मुख पृष्ठ वक्र है
मोह-माया ना मिट सका
यह कैसा जीवन-कुचक्र है?
नवप्रस्फुटन की आस में
माटी को मैं दुलराता हूँ।

काल के गतिमान पल में
मैं वृद्ध कहलाता हूँ

#श्वेता सिन्हा

Sunday, 29 September 2019

मौन सुर

वे नहीं जानते हैं
सुर-ताल-सरगम के
ध्वनि तरंगों को
किसी को बोलते देख
अपने कंठ में अटके
अदृश्य जाल को
तोड़ने की बस 
निरर्थक चेष्टा करते 
अपनी आँखों में
समेटकर सारा अर्थ 
अव्यक्त ही रख लेते
मन के अधिकतम भावों को
व्यक्त करने की
अकुलाहट में ...

जग के कोलाहल से विलग
है उनकी अपनी एक दुनिया 
मौन की अभेद्य परतों में 
अबोले शब्दों के गूढ़ भाव
अक़्सर चाहकर भी 
संप्रेषित कर नहीं पाते
मूक-बधिर ... बस 
देखकर,सूँघकर, स्पर्श कर
महसूस करते हैं जीवन-स्पन्दन
मानव मन के शब्दों वाले
विचारों के विविध रुपों से
सदा अनभिज्ञ ...बस 
पढ़ पाते हैं आँखों में
प्रेम-दया-करुणा-पीड़ा
मान-अपमान की भाषा,
ये मासूम होते हैं सृष्टि के
अमूल्य उपहारों की तरह विशिष्ट,
मौन को मानकर जीवन

बिना किसी भेद के
मिलते है गले
लुटाते हैं प्रेम
आजीवन भीतर ही भीतर
स्पंदित श्वास 
निःशब्द महसूस करते
स्पर्श के लय में और 
धड़कनों की सुर-ताल में
समस्त संसार को।

#श्वेता सिन्हा

Tuesday, 24 September 2019

मौन अर्ध्य

विदा लेती
भादो की 
बेहद उदास शाम 
अनायास नभ के 
एक छोर पर उभरी
अपनी कल्पना में गढ़ी 
बरसों उकेरी गयी
 प्रेम की धुंधली तस्वीर में
तुम्हारे अक्स की झलक पाकर 
सूखकर पपड़ीदार हुये
कैनवास पर एहसास के रंगों का 
गीलापन महसूस कर
अवश मन 
तैरने लगा हवाओं में.....

मन अभिमंत्रित 
बँधता रहा तुम्हारे
चारों ओर 
मैं घुलती रही बूँद-बूँद
तुम्हारी भावों को
आत्मसात करती रही
तुम्हारे चटख रंगों ने
फीका कर दिया
जीवन के अन्य रंगों को,

अपनी साँसों में महसूस करती 
मैं अपनी प्रेम की कल्पनाओं को
यथार्थ में जीना चाहती हूँ 
छूकर तुम्हारी पेशानी
सारी सिलवटें 
मिटाना चाहती हूँ,
तुम्हारी आँखों में जमे 
अनगिनत प्रश्नों को 
अपने अधरों के ताप से
पिघलाकर स्नेह के बादल
बना देना चाहती हूँ
तुम्हारे मन के तलछट की
सारी काई काछकर
नरम दूब उगाना चाहती हूँ

पर डरती हूँ
कहीं मेरे स्पर्श करने से प्रेम,
खूबसूरत कल्पनाओं 
की रंगीन शीशियाँ,
कठोर सत्य की सतह पर
लुढ़ककर बिखर न जाये
रिसती,निर्बाध बहती
पवित्र भावनाओं
को मेरे छुअन का संक्रमण 
अभिशप्त न कर दे।

सोचती हू्ँ...
अच्छा हो कि
मैं अपनी स्नेहसिक्त
अनछुई कल्पनाओं को
जीती रहूँ
अपनी पलकों के भीतर
ध्यानस्थ,चढ़ाती रहूँ अर्ध्य 
मौन समाधिस्थ
आजीवन।

#श्वेता सिन्हा








Monday, 23 September 2019

सजदे


जहाँ हो बात इंसानियत की
मोहब्बत का एहतराम करते हैं
इंसान को इंसान समझकर
नेकियों के सजदे सरेआम करते हैं

मज़हबी दड़बों से बाहर झाँककर
 मनुष्यता की पोथी,किताब बाँचकर
धर्म के नाम पर ढ़ोंग लाख़ करते हैं
काफ़िर कहलाने से हम भी डरते हैं
ठठरी लाशों संग बैठकर दो-चार पल
दीनों के सजदे सुबह-शाम करते हैं

बुतपरस्तों के शहर के पहरेदार 
ज़ाबाज़ वतनपरस्त हरदम तैयार
बनती-मिटती सरहद की दीवारों में
सूनी कलाईयों,कोख की चीत्कारों में
ख़ामोशी से फ़र्ज़ निभाते वीरों के
वफ़ाओं के सज़दे बे-नाम करते हैं

धरा पर बहती संवेदनाओं की नदी
बुत मानवता को कहती रही सदी 
जल,ज़मीन,जंगल हवाओं की मस्ती
कुदरत के रेशों से बुनी इंसानी बस्ती
साँसों के तोहफों में भूलकर दुख-दर्द 
ज़िंदगी के सजदे हर जाम करते हैं

सुकून गँवाये जन्नत की ख़्वाहिश में 
रब ढूँढ रहे इंसानों की आजमाइश में
ईमान की कैफियत,धर्म की दुहाई 
जहन्नुम से खौफ़ज़दा,नर्क से रिहाई 
आईने हक़ीक़त के देखकर अक़्सर
दिलों के सजदे हम बे-दाम करते है

#श्वेता सिन्हा

Tuesday, 10 September 2019

क्यों....?


दामन काँटों से भरना क्यों?
जीने के ख़ातिर मरना क्यों?

रब का डर दिखलाने वालों
ख़ुद के साये से डरना क्यों?

न दर्द,न टीस,न पीव-मवाद
ऐसे जख़्मों का पकना क्यों?

जो मिटा चुकी यादें गलियाँ
उनके तोहफों को रखना क्यों?

यह जग बाजा़र है चमड़ी का
यहाँ मन का सौदा करना क्यों?

सब छोड़ यहीं उड़ जाना है
पिंजरे के मोह में झंखना क्यों?

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...