बनते-बिगड़ते,ठिठकते-बहकते
तुम्हारे मन के अनेक अस्थिर,
जटिल भाव के बीच सबसे कोमल
स्थायी एहसास बनकर निरंतर
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ मैं...
तुम्हारे मन के अनेक अस्थिर,
जटिल भाव के बीच सबसे कोमल
स्थायी एहसास बनकर निरंतर
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ मैं...
पवित्र नदी,कुएँ या झील में
तुम्हारे द्वारा उछाले गये
प्रार्थनाओं का सिक्का बनकर
डूब जाना चाहती हूँ मैं
प्रेम के गहरे समुंदर में,
किसी मंदिर में जोड़ी गयी हथेलियों
के मध्य,बंद पलकों की झिर्रियों
से झाँकना चाहती हूँ मैं,
दीये की लौ की तरह
तुम्हारे पथ में
जलना चाहती हूँ मैं,
रूनझुनी घंटियों की स्वरलहरी सी
गूँजना चाहती हूँ मैं
तुम्हारे अंर्तमन में...
गूँजना चाहती हूँ मैं
तुम्हारे अंर्तमन में...
किसी दरगाह,मज़ार पर,
किसी पावन वृक्ष के ईर्दगिर्द
मन्नत का पवित्र धागा बनकर
लिपटना चाहती हूँ
तुम्हारे मन की अंतिम इच्छा बनकर।
किसी पावन वृक्ष के ईर्दगिर्द
मन्नत का पवित्र धागा बनकर
लिपटना चाहती हूँ
तुम्हारे मन की अंतिम इच्छा बनकर।
फूलों पर मचलती तितली देखते हुए
बारिश के झोंकों के साथ,
हवाओं की अठखेलियों के साथ,
नीरस शाम की चाय के साथ,
शाम ढले सबसे चमकीला तारा ढूँढ़ते हुए,
जुगनू को मुग्ध निहारते हुए,
तुम्हारे लैपटॉप की स्क्रीन पर,
फाइलों के जरूरी कागज़ों के बीच
अनायास ही मिल गयी
किसी विशेष स्मृति चिह्न की तरह
छू जाना चाहती हूँ तुम्हारे होंठों को
बनकर मीठी-सी मुस्कान,
किसी इत्र की खुशबू की तरह
करना चाहती हूँ तुम्हें भाव विभोर।
सुनो न...
मैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे लैपटॉप की स्क्रीन पर,
फाइलों के जरूरी कागज़ों के बीच
अनायास ही मिल गयी
किसी विशेष स्मृति चिह्न की तरह
छू जाना चाहती हूँ तुम्हारे होंठों को
बनकर मीठी-सी मुस्कान,
किसी इत्र की खुशबू की तरह
करना चाहती हूँ तुम्हें भाव विभोर।
सुनो न...
मैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,
होंठों से उच्चरित मंत्र की तरह
तुम्हारे द्वारा पढ़ी या लिखी गयी
कहानी,कविताओं, प्रेम पत्रों की
एकमात्र नायिका बनकर...।
-------
-श्वेता सिन्हा
१३ फरवरी २०२२
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,
होंठों से उच्चरित मंत्र की तरह
तुम्हारे द्वारा पढ़ी या लिखी गयी
कहानी,कविताओं, प्रेम पत्रों की
एकमात्र नायिका बनकर...।
-------
-श्वेता सिन्हा
१३ फरवरी २०२२
आपकी लिखी रचना सोमवार. 14 फरवरी 2022 को
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
तुम्हारे मन की अंतिम इच्छा बनकर.... वाह श्वेता जी
ReplyDeleteबहुत प्यारे अहसास को समेटती हुई रचना।
'कितना कुछ चाहते हैं हम
हम चाहते हैं कुछ होना।'
वाह
ReplyDeleteकिसी मंदिर में जोड़े गये हथेलियों
ReplyDeleteके मध्य,बंद पलकों की झिर्रियों
से,दीये की लौ की तरह,
रूनझुनी घंटियों की स्वरलहरी सी
गूँजना चाहती हूँ मैं....
किसी दरगाह,मज़ार पर,
किसी पावन वृक्ष के ईर्दगिर्द
मन्नत का पवित्र धागा बनकर
लिपटना चाहती हूँ.....
पर अगर वो नास्तिक हो तो ?
नास्तिक के मन में क्या बनकर रहे हमारी नायिका ?
चलो, ये तो मज़ाक की बात !
किसी के भावविश्व में किसी भी रूप में थोड़ी सी जगह पा जाने की यह ख्वाहिश बड़ी पवित्र है। हमेशा की तरह अनूठे बिंबों का प्रयोग ! सस्नेह।
और..
ReplyDeleteतुम्हारे नास्तिक मन की
वह अड़ियल अनास्था
जो बार-बार दबे पाँव
तुम्हारे मन की अर्गला उतार
बिना आहट घुस जानेवाली
उस अंगद पाँव वाली
'आस्था' से रात-दिन
चिपकी रहती है
सिर्फ लड़ने के लिए!...
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (14-02-2022 ) को 'ओढ़ लबादा हंस का, घूम रहे हैं बाज' (चर्चा अंक 4341) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सुनो न...
ReplyDeleteमैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,
होंठों से उच्चरित मंत्र की तरह
तुम्हारे द्वारा पढ़ी या लिखी गयी
कहानी,कविताओं, प्रेम पत्रों की
एकमात्र नायिका बनकर...।👌👌
प्रेम में आकंठ निमग्न मन का मर्मस्पर्शी संवाद! नवल बिम्ब विधान विस्मित कर रहे हैं! प्रेम दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं 🌷🌷❤️❤️
वाह श्वेता, प्रेम की पराकाष्ठा का ऐसा मनोहारी चित्रण !
ReplyDeleteलगता है कि मीरा की आत्मा तुम्हारे अन्दर प्रविष्ट हो चुकी है !
बहुत खूबसूरत !!
ReplyDeleteबनते-बिगड़ते,ठिठकते-बहकते
ReplyDeleteतुम्हारे मन के अनेक अस्थिर,
जटिल भाव के बीच सबसे कोमल
स्थायी एहसास बनकर निरंतर
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ मैं...
वाह! वाकई बहुत ही खूबसूरत रचना!
सुनो न...
ReplyDeleteमैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,
होंठों से उच्चरित मंत्र की तरह
तुम्हारे द्वारा पढ़ी या लिखी गयी
कहानी,कविताओं, प्रेम पत्रों की
एकमात्र नायिका बनकर...।
प्रेम की पराकाष्ठा... अद्भुत बिम्ब से सजी
प्रेममयी लाजवाब रचना।
वाह!!!
प्रेमगर्विता भाव विभोर कर रही है अपने पवित्र नेह से। उत्कृष्ट प्रेमालाप।
ReplyDeleteरूनझुनी घंटियों की स्वरलहरी सी
ReplyDeleteगूँजना चाहती हूँ मैं
तुम्हारे अंर्तमन में...
अत्यन्त सुंदर भाव लिए अनुपम कृति ।
व्वाह
ReplyDeleteसुंदर प्रेम कविता
हृदय तक पहुंचने और मन से संवाद करने वाली
साधुवाद
मंगलकामनाएं
🌹🌻🌷
बहुत ख़ूब
ReplyDeleteबनते-बिगड़ते,ठिठकते-बहकते
ReplyDeleteतुम्हारे मन के अनेक अस्थिर,
जटिल भाव के बीच सबसे कोमल
स्थायी एहसास बनकर निरंतर
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ मैं...
बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां, पूरी रचना की सुंदर शाश्वत भूमिका ।
प्रेम का प्रवाह निरंतरता लिए हुए । बहुत सुंदर सार्थक अभिव्यक्ति ।
सुनो न...
ReplyDeleteमैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,
होंठों से उच्चरित मंत्र की तरह
तुम्हारे द्वारा पढ़ी या लिखी गयी
कहानी,कविताओं, प्रेम पत्रों की
एकमात्र नायिका बनकर...।
हर एक नायिका की यही ख्वाहिश होती है
प्रेम मग्न हृदय की बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति, सादर श्वेता जी
प्रेम की एक ऐसी गगरी जो छलक रही है और प्रेम रुपी जल ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना ...
प्रेम में डूबी नायिका , बनना चाहती है एक कोमल एहसास पुरुष के अहम के बीच । धर्म के भेद भाव से परे मंदिर के दिये की लौ से पथ को प्रकाशित करना चाहती है तो मज़ार या दरगाह के पास किसी वृक्ष पर मन्नत का धागा बन जाना चाहती है । नहीं तो प्रार्थनाओं का सिक्का ही बन जाना चाहती है । इस पंक्ति से लग रहा कि वो नास्तिक तो हरगिज़ नहीं । तभी न कुछ इच्छा कर सिक्के फेंके हैं नदी या कुँए में ।
ReplyDeleteपूरी रचना में प्रेम में आकंठ डूबी नायिका का चित्र खींच दिया है । बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
शाश्वत प्रेम की कल्पना सरल और सहज नहीं है,प्रेम बस हो जाता यह कहकर निकल जाना एक आम धारणा है,यह रचना इस आम धारणा को तोड़ती है और जोड़ती है प्रेम को प्रेम से,दिल से दिल को,मन से मन को.
ReplyDeleteप्रेम की अद्भुत रचना
बधाई
सादर
सुनो न...
ReplyDeleteमैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,बेहद खूबसूरत रचना श्वेता जी।