समय के माथे पर
पड़ी झुर्रियाँ
गहरी हो रही हैं।
अपनी साँसों का
स्पष्ट शोर सुन पाना
जीवन-यात्रा में एकाकीपन के
बोध का सूचक है।
पड़ी झुर्रियाँ
गहरी हो रही हैं।
अपनी साँसों का
स्पष्ट शोर सुन पाना
जीवन-यात्रा में एकाकीपन के
बोध का सूचक है।
इच्छाओं की
चारदीवारी पर उड़ रहे हैं जो
श्वेत कपोत
मुक्ति की प्रार्थनाओं के
संदेशवाहक नहीं,
उम्र की पीठ पर लदी
अतृप्ति की बोरियों के
पहरेदार हैं।
उम्र की पीठ पर लदी
अतृप्ति की बोरियों के
पहरेदार हैं।
मन के पाताल कूप में गूँजती
कराहों की प्रतिध्वनियाँ
सृष्टि के जन्मदाता से
चाहती है पूछना
क्यों अधिकार नहीं मुझे
चुन सकूँ
किस रूप में जन्म लूँ ?
-श्वेता सिन्हा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 10 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत सुंदर! सूचना के अधिकार के युग में सृष्टि के जन्मदाता भी अपने सृजन लोक से उठने वाली जिज्ञाषाओं और प्रश्नों का उत्तर देने के उत्तरदायित्व से भला कैसे मुक्त हो सकते है? उनमें यह दायित्व बोध जगाने के लिए विदुषी कवयित्री को बधाई!!!
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
ReplyDeleteसादर
जटिल संवेदनाओं की प्रश्नाकुलता ही अस्मिता की तलाश/चुनाव है। संभवतः हमारी विस्मृति में ही कहीं उत्तर भी हो। चेतना से गहन संवाद।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteये प्रश्न तो असंख्यात लोग अनंत काल से पूछना चाहते हैं,पर क्या तृष्णा का कोई अंत है हर एक के हृदय में अतृप्त भाव रहते ही रहते हैं जब तक वो स्वयं को खोजने के मार्ग पर न चल पड़े, कामनाएं कहां पूर्ण होती है , जब तक स्वयं से कम और कमतर को देख संतोष भाव का उद्भव न हो।
ReplyDeleteव्याकुल मन की संवेदनशील अभिव्यक्ति।
क्यों नहीं है अधिकार, हरेक को अधिकार है वह जन्मे या नहीं जन्मे, जन्मे तो कहाँ जन्मे, हमें ही इसकी खबर नहीं है, बुद्ध और कबीर यही तो कह गए हैं
ReplyDeleteआदरणीया अनिताजी, आपकी बात बिल्कुल सही है परंतु यह अधिकार पाने की योग्यता सभी कहाँ विकसित कर पाते हैं ?
Deleteबहुत सुन्दर सृजन श्वेता !
ReplyDeleteकिस रूप में हम जन्म लें, यह तो हमारे-तुम्हारे अधिकार में नहीं है लेकिन हम अपने प्रयासों से, अपने संघर्ष से, अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति से, अपने प्रारंभिक रूप को एक नया, एक मन-चाहा स्वरुप तो प्रदान कर ही सकते हैं.
मन के पाताल कूप में गूँजती
ReplyDeleteकराहों की प्रतिध्वनियाँ
सृष्टि के जन्मदाता से
चाहती है पूछना
क्यों अधिकार नहीं मुझे
चुन सकूँ
किस रूप में जन्म लूँ ?
..ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जिन्हे पूछने का मन करता है । परंतु उत्तर कहां है ??
बहुत सुंदर और प्रासंगिक रचना । बधाई सखी ।
इच्छाओं की
ReplyDeleteचारदीवारी पर उड़ रहे हैं जो
श्वेत कपोत
मुक्ति की प्रार्थनाओं के
संदेशवाहक नहीं,
उम्र की पीठ पर लदी
अतृप्ति की बोरियों के
पहरेदार हैं।///बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति प्रिय श्वेता।अतृप्ति का असहय बोझ लादे हर इंसान सृजनहार से यही प्रश्न करता हुआ नज़र आता है कि आखिर सबकी डोर उसने अपने पास रख कठपुतली-सा क्यों नचायया है।कुछ तो अधिकार दिए होते अपनी संतति को।
सृष्टि के जन्मदाता से
ReplyDeleteचाहती है पूछना
क्यों अधिकार नहीं मुझे
चुन सकूँ
किस रूप में जन्म लूँ ?
यदि ये अधिकार मानव को दे देता तो फिर विधाता के हाथ में कहाँ कुछ रह जाता? फिर भी, मानव को शिकायत का अधिकार तो है ही। कभी ना कभी यह शिकायत सभी के मन में आती है। कविता के तीनों बंध सुंदर !!!
अपने अन्तर्मन से संवाद करती गहन अभिव्यक्ति । चिन्तनपरक कृति ।
ReplyDeleteएकाकीपन में श्वासों का शोर ...
ReplyDeleteइच्छाओं की चाहरदीवारियाँ और उम्र की पीठ पर अतृप्ति की बोरियाँ...
हमारे कर्म अकर्म सकर्म के परिणाम स्वरूप मिले होंगे बस यही अधिकार हैं हमारा फल पूर्णतया उसके हाथ...सवालों से घिरा मन सवाल करे किससे...
विचारणीय एवं चिंतनपरक
लाजवाब सृजन।
जीवन की विषमताओं से उपजा प्रश्न है शायद ...... वैसे मैंने एक मनोवैज्ञानिक की पुस्तक में पढ़ा है कि हर आत्मा अपना जीवन खुद चुनती है अपने कर्मों के अनुसार .... यहाँ तक की माँ बाप तक .... सच्चाई क्या है ये कौन बता पायेगा .... गहन मंथनका निचोड़ ही ये रचना ....
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