अभी मैं कैसे जश्न मनाऊँ,कहाँ आज़ादी पूरी है,
शब्द स्वप्न है बड़ा सुखद, सच को जीना मजबूरी है।
आज़ादी यह बेशकीमती, भेंट किया हमें वीरों ने,
सत्तावन से सैंतालीस तक ,शीश लिया शमशीरों ने।
साल बहत्तर उमर हो रही,अभी भी चलना सीख रहा,
दृष्टिभ्रम विकास नाम का,छल जन-मन को दीख रहा।
जाति,धर्म का राग अलाप,भीड़ नियोजित बर्बरता,
नहीं बेटियाँ कहीं सुरक्षित,बस नारों में गूँजित समता।
भूखों मरते लोग आज भी,शर्म कहाँ तुम्हें आती है?
आतंकी की गोली माँ के लाल को कफ़न पिन्हाती है।
आज़ादी क्या होती है पूछो ,कश्मीर के पत्थरबाजों से,
ईमान जहाँ बिकते डर के , कुछ जेहादी शहजादों से।
मन कैसे हो उल्लासित, बंद कमरों में सिमटे त्योहार,
वाक् युद्ध अब नहीं चुनावी, मैले दिल बदले व्यवहार।
आँखें मेरी सपना बुनती, एक नयी सुबह मुस्कायेगी,
शिक्षा की किरण तम को हर कर,भय,भूख से मुक्ति दिलायेंगी
हम सीखेंगे मनुष्यता और मानवता के पुष्प खिलायेंगे।
स्वयं के अहं से ऊपर उठकर भारतवासी कहलायेंगे।
भूल विषमता व्यक्तित्व परे,सब मिलकर अलख जगायेंगे।
कन्या से कश्मीर तक स्वरबद्ध जन-मन-गण दोहरायेंगे।
शब्द स्वप्न है बड़ा सुखद, सच को जीना मजबूरी है।
आज़ादी यह बेशकीमती, भेंट किया हमें वीरों ने,
सत्तावन से सैंतालीस तक ,शीश लिया शमशीरों ने।
साल बहत्तर उमर हो रही,अभी भी चलना सीख रहा,
दृष्टिभ्रम विकास नाम का,छल जन-मन को दीख रहा।
जाति,धर्म का राग अलाप,भीड़ नियोजित बर्बरता,
नहीं बेटियाँ कहीं सुरक्षित,बस नारों में गूँजित समता।
भूखों मरते लोग आज भी,शर्म कहाँ तुम्हें आती है?
आतंकी की गोली माँ के लाल को कफ़न पिन्हाती है।
आज़ादी क्या होती है पूछो ,कश्मीर के पत्थरबाजों से,
ईमान जहाँ बिकते डर के , कुछ जेहादी शहजादों से।
मन कैसे हो उल्लासित, बंद कमरों में सिमटे त्योहार,
वाक् युद्ध अब नहीं चुनावी, मैले दिल बदले व्यवहार।
आँखें मेरी सपना बुनती, एक नयी सुबह मुस्कायेगी,
शिक्षा की किरण तम को हर कर,भय,भूख से मुक्ति दिलायेंगी
हम सीखेंगे मनुष्यता और मानवता के पुष्प खिलायेंगे।
स्वयं के अहं से ऊपर उठकर भारतवासी कहलायेंगे।
भूल विषमता व्यक्तित्व परे,सब मिलकर अलख जगायेंगे।
कन्या से कश्मीर तक स्वरबद्ध जन-मन-गण दोहरायेंगे।
---श्वेता सिन्हा
sweta sinha जी बधाई हो!,
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