नैनों में भर खारे मोती
विष के प्याले पीना हो,
आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो..?
मन के चाहों को छू-छूकर
चिता लहकती धू-धूकर
भावों की राख में लिपटा मन
कैसे चंदन-सा भीना हो?
आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो..?
भोर सिसकती धुंध भरी
दिन की आरी भी कुंद पड़ी
गीली सँझा के आँगन में
कैसे रातें पशमीना हो?
आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो...?
जर्जर देह के आवरण के
शिथिल हिया के आचरण के
अवशेष बचे हैं झँझरी कुछ
कैसे अंतर्मन सीना हो...?
आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो...?
#श्वेता सिन्हा