पल दो पल में ही ज़िदगी बदल जाती है।
ख़ुशी हथेली पर बर्फ़-सी पिघल जाती है।।
उम्र वक़्त की किताब थामे प्रश्न पूछती है,
जख़्म चुनते ये उम्र कैसे निकल जाती है।
दबी कोई चिंगारी होगी राख़ हुई याद में,
तन्हाई के शरारे में बेचैनी मचल जाती है।
सुबह जिन्हें साथ लिये उगती है पहलू में,
उनकी राह तकते हर शाम ढल जाती है।
ख़्वाहिश लबों पर खिलती है हँसी बनकर,
आँसू बन उम्मीद पलकों से फिसल जाती है।
श्वेता सिन्हा