पुस्तक समीक्षा
काव्य संग्रह-प्रिज़्म से निकले रंग
कवि - रवीन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक - ऑन लाइन गाथा
मूल्य - ५० रुपये
"रवीन्द्र जी की मौलिक रचनाएँ"
रवीन्द्र जी बहुत ज़्यादा नहीं लिखते, बे-वजह नहीं लिखते हैं पर जो भी लिखते हैं उसमें कुछ न कुछ सार्थक संदेश अवश्य छुपा होता है।
उनकी लेखनी के प्रिज़्म से निकल कर शब्द किरणें इंद्रधनुषी रंग की कविताओं में बदल गयीं। जीवन के विविध रंगों को समेटे आदरणीय "रवीन्द्र सिंह यादव" जी की पहली कृति "काव्य-संग्रह" में उनकी अभिव्यक्ति अनुपम छटा बिखेर रही है। मौलिकता और सौम्य भावों से लबरेज़ समाज के चिंतनीय विषयों को हर कविता छूती नज़र आती है।
प्रकृति,अतीत और वर्तमान में अद्भुत साम्य कवि की विराट सोच को दर्शाता है।
इस कविता संग्रह में कुल ३४ रचनाएँ हैं जिनमें जीवन के हर रंग को उकेरा गया है।
सर्वप्रथम माँ वागीश्वरी की सुंदर प्रार्थना में समाहित भाव माँ के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित कर लोककल्याणकारी भाव मुखर होकर कवि के विचारों की उत्कृष्टता का एहसास करा जाते हैं। जब वो कहते है-
हे माँ !
उन मस्तिष्क का विवेक
जाग्रत रखना
जिनकी अँगुलियों को
भोले जनमानस ने
परमाणु - बटन दबाने का अधिकार सौंप दिया है ,
माँ वीणा वादिनी से यह कहना कि -
उन दीन -दुखी , निबल, जर्जर को संबल देना
जो मूल्यों की धरोहर सहेजे हैं,
निज स्वार्थ से ऊपर उठकर सर्व मंगल-मांगल्य की भावना से भरी यह प्रार्थना सही मायने में एक सदविचारयुक्त प्रार्थना है।
संपूर्ण नारी जाति को सम्मानीय और सर्वोच्च शिखर पर बिठाकर पूजने वाले,औरतों की तरफ़ से उनकी समस्याओं पर गंभीर सवाल करते,उनकी दयनीय दशा पर तीखे व्यंग्य करते बेहद प्रभावशाली-
"सिर्फ़ एक दिन नारी का सम्मान शेष दिन.....?" गद्य और पद्य की मिश्रित शैली में महिला दिवस के अवसर पर लिखी गयी रचना विचारणीय है।
औरतों पर हो रहे अत्याचारों से मन को विचलित करती रचना-
"मैं वर्तमान की बेटी हूँ " में -
बेटी ख़ुद को कोसती है,
विद्रोह का सोचती है ,
पुरुष-सत्ता से संचालित संवेदनाविहीन समाज की ,
विसंगतियों के मकड़जाल से हारकर ,
अब न लिखेगी बेटी -
"अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो ,
मोहे किसी कुपात्र को न दीजो "।
ऐसी भावपूर्ण पंक्तियाँ कवि के संवेदनशील मनोभाव को इंगित करते हैं।
और "ममता" भी सोचने पर मज़बूर करती है जिसमें स्त्री-सुलभ गुणों से परे जाती एक स्त्री का ज़िक्र है।
देशभक्ति के जज़्बे से भीगी हुई "सैनिक", "सैनिक की जली हुई रोटियाँ" में -
हमने तो सिर्फ़
अपना मन मसोस लिया,
ख़ुद को तिलमिला लिया,
राष्ट्रीय-सुरक्षा के गंभीर सवालों से,
ख़ुद को खदबदा लिया।
एक आम जन की बे-बसी को शब्द देती रचना आम पाठक के मन तक पहुँचती है।
इन रचनाओं में जहाँ सैनिकों की पीड़ा को बारीकी से बुना गया है वहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की देशभक्ति और और उनकी मृत्यु के रहस्य पर अनेक प्रश्न पूछती विचारणीय कविता भी मौजूद है जिसकी पंक्तियाँ हैं-
स्वतंत्रता का मर्म वह क्या जाने,
जो स्वतंत्र वातावरण में खेला है,
उस पीढ़ी से पूछो!
जिसने पराधीनता का दर्द झेला है!!
इतिहास और वैदिक साहित्य जैसे अछूते विषय पर कविता लिखना आसान नहीं कवि की सृजनशीलता और बेबाक लेखन "जलंधर" में मुखर हो जाती है।
"जलंधर"एक पौराणिक पात्र के माध्यम से चमत्कृत करती शैली में बेहद सराहनीय रचना जिसे बार-बार पाठकों को पढ़ने का मन करे। कुछ ख़ास पंक्तियाँ-
सहज संतुलन सृष्टि का
रखने को विष्णु- लीला है
पीते -पीते तीक्ष्ण हलाहल
शिव- कंठ अभी तक नीला है
छल, दम्भ, झूठ, पाखण्ड सभी
छाये हैं सत्य दबाने को आज जलंधर फिर आया है
हाहाकार मचाने को।
"आज जलंधर फिर आया है" एक लंबी कविता होने के बाबजूद कहीं लय नहीं टूटती यही ख़ासियत है कवि की शैली की।
"प्रकृति" , "उत्सव","जीवन की विसंगतियों पर लिखी रचनाओं में जहाँ एक ओर जीवन के ख़ूबसूरत रंग हैं वहीं सामाजिक ढाँचे और वर्तमान परिदृश्य से रोष भी जताया है। जहाँ होली और बसंत के माधुर्य से भरी शब्द रचना सुंदर कल्पनालोक की परी कथा जैसे कोकिल तान मन में रागिनी घोलते हैं वहीं कविता के अंत तक आते-आते कवि यथार्थ का आईना दिखलाना नहीं भूलते। कहीं-कहीं यथार्थ कविता की कल्पनाशीलता और उसके माधुर्य पर हावी हो जाता है जो कि पाठक को अटपटा लग सकता है। इनकी लगभग हर कविता में एक सार्थक चिंतनशीलता और संदेश दृष्टिगोचर होता है।
"नोटबंदी", "पूँजीवाद का शिकंजा" कविताओं में गंभीर सामाजिक और समसामयिक चिंतन और ज्वलंत प्रश्न करते संवेदनशील कविमन की विह्वलता समाज के एक जागरूक बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है।
"ओस" कविता में एक बच्ची के कौतुक को शांत करते आधुनिक परिवेश का चित्रण करते हुये जब कहते हैं-
सवालों-जवाबों के बीच पहुँचे पार्क,
चमका रही थीं ओस - कणों को,
भोर की मनहर रवीना,
ये कुदरत के आँसू हैं या पसीना........?
तो ओस की बूँदें अनायास ही नगीने-सी आँखों के सामने छा जाती हैं।
संवेदना शून्य होते समाज का/ यह सच/ अब किसी आवरण में नहीं ढका है /अंतर्मन आज सोच-सोचकर थका है,/ अपनी ही लाश ढोता आदमी/ अभी नहीं थका है।
पिता" के लिए लिखी गयीं इन पंक्तियों में भावनाओं की सरिता में गोते लगाने से आप ख़ुद को नहीं रोक पायेगें।
गद्य और पद्य की मिश्रित शैली में लिखी एक बेहद दिलक़श कविता जो किसी भी दिल को छू ले -
लोग ढूँढ़ेंगे दर्द-ओ-सुकूं
मोहब्बत की इस निशानी में,
मोहब्बत की इस निशानी में,
देखने आएगी दुनिया
देखने आएगी दुनिया
साहिल -ए -जमुना खड़ा है ताज वहां ।
मुंतज़िर है कोई
सुनने को मेरे अल्फ़ाज़ वहाँ ।
सुनने को मेरे अल्फ़ाज़ वहाँ ।
ये रचना निश्चय ही आप के जे़हन से दिल की वादियों में उतर जायेगी आपके होंठ अनायास ही गुनगुना पड़ेंगे।
"फूल से नाराज़ होकर तितली सो गई", "ये कहाँ से आ गयी बहार है", "धीरे-धीरे ज़ख़्म सारे अब भरने को आ गये", "दोपहर बनकर अक्सर न आया करो", "नयी सुबह" जैसी कई कविताएँ हैं जिन्हें आप गुनगुनाये बिना नहीं रह सकेंगे। उर्दू के शब्दों का कलात्मक प्रयोग कविताओं के लालित्य में चार चाँद लगाता है। पाठकों की सुविधा का ध्यान रखते हुये उर्दू / हिंदी के कठिन शब्दों के अर्थ भी कवि ने लिखे हैं ताकि एक आम पाठक रचनाओं का आस्वादन आसानी से कर सके। छंदात्मक और मुक्त छंद शैली में लिखी गयीं कविताएँ सहज पाठक को आकर्षित करती हैं।
"विश्वास" और "अप्रैल फूल" में राजनीति के धुंरधरों का चरित्र-चित्रण व्यंगात्मक लहज़े में बेहद सटीक है। बेबाकी से सत्य लिखना कवि की निडरता और साहसी होने का परिचायक है।
अंत के भागों में हमारे दैनिक जीवन में आसपास बिखरे पात्रों पर रची गयी "मैं मजदूर हूँ", "मदारी" "लकड़हारा"और "बहुरुपिया" जैसे विरल विषयों पर लिखना आसान नहीं,निश्चय ही कवि की सूक्ष्म दृष्टि सराहनीय है।
कुल मिलाकर विविध विषयों पर सराहनीय शब्द रचना लिये रवींद्र जी की पुस्तक साहित्य प्रेमियों और समाज के लिए अमूल्य उपहार हैं।
कृपया आप भी अवश्य इन सारगर्भित कविताओं का आस्वादन करें।
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-----श्वेता
-----श्वेता