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Sunday, 1 July 2018

मरते सपने




बीतती उम्र के खोल पर
खुशियों का रंग पोते
मैं अक्सर फड़फड़ाता हूँ
मुस्कुराता हूँ चहककर
अपने लिये तय दायरों में
थकाऊ,उबाऊ रास्तों पर
चलते-चलते सुस्ताता
अक्सर रात को
तन्हां आसमां
चुपचाप निहारकर
घंटों करवट बदलकर
टटोलकर कुछ सितारे
सँभालकर सिरहाने
किसी सुनहरे स्वप्न की 
राह तकते सो जाता हूँ
पर जाने क्यूँ रुठी-रुठी है मुझसे
स्वप्नों की परियाँ
बीत जाती है रात उनींदी
और पलकों की खाली डिबिया में
हर सुबह ढूँढता हूँ
सपनों की  रंगीन तितलियाँ

कितना कुछ तो है
पिछली गलियों में सहेजा हुआ
बचपन की पगडंडियों की
कच्ची धूप 
रेत के घरौंदे में सजे
रंग-बिरंगे काँच और पन्नियाँ
और एक अधूरी तस्वीर
जिसके रंग समय के साथ
गहराते रहे
दिन,महीने,साल में बदलते
 चंद पल
ठहरे है उसी मोड़ पर
हथेलियों से छूटकर गिरी
जिस राह पर
रात लम्हों को
चुनते बीत जाती है
सपनों की पोटली लिये जुगनू
इंतज़ार में नींद के
उँघकर वापस लौट जाते हैं
सुरमई आँखों में खुशबू 
भरने को आतुर कोमल फूल
आँखों में उगे कैक्टस में उलझकर
टूट कर बिखर जाता है
स्वप्न परियों की कहानियाँ
अधूरी रह जाती हैं
रंगीन तितलियाँ
खाली आँखों की 
डिबिया में घुटकर मर जाती है
और उम्र की हथेलियों पर
तड़पती नींद
बिना सपनों के कराहती है।


    #श्वेता सिन्हा


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