Friday 10 January 2020

जिजीविषा



(१)
घना अंधेरा कांधे पर
उठाये निरीह रात के
थकान से बोझिल हो
पलक झपकाते ही
सुबह
लाद लेती है सूरज
अपने पीठ पर
समय की लाठी की
उंगली थामे
जलती,हाँफती 
अपनी परछाई ढोती
चढ़ती जाती है,
टेढ़ी-मेढ़ी
पहाड़ी की सँकरी
पगडंडियों में उलझकर
क्षीण हो
शून्य में विलीन होनेतक
संघर्षरत
अपनी अस्तित्व की 
जिजीविषा में।

(२)
बीज से वृक्ष 
तक का संघर्ष  
माटी की कोख से 
फूटना
पनपना,हरियाना,
फलना-फूलना
सूखना-झरना 
पतझड़ से मधुमास
सौंदर्य से जर्जरता के मध्य
स्पंदन से निर्जीवता के मध्य
सार्थकता से निर्रथकता के मध्य
प्रकृति हो या जीव
जग के महासमर में
प्रत्येक क्षण
परिस्थितियों के अधीन
जन्म से मृत्यु तक
जीवन के
मायाजाल में उलझी
जिजीविषा।

#श्वेता सिन्हा
१०/१/२०२०


Sunday 5 January 2020

हम नहीं शर्मिंदा हैं


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हम हिंदु मुसलमान में ज़िंदा हैं
हिंदुस्तान के मज़हबी बाशिंदा हैं
लाशों पर हाय! हृदयहीन राजनीति
 कौन सुने मज़लूमों की आपबीती?
वाक् वीर करते औपचारिक निंदा है
पर,ज़रा भी, हम नहीं शर्मिंदा हैं!

गोरखपुर,कोटा,लखनऊ या दिल्ली
खेल सियासती रोज उड़ाते खिल्ली
मक़्तल पर महत्वकांक्षा की चढ़ते
दाँव-पेंच के दावानल में जल मरते
चतुर बहेलिये फाँसते मासूम परिंदा है
पर ज़रा भी, हम नहीं शर्मिंदा हैं! 

 लगाकर नाखून पर  नीला निशान
गर्वित हो सेल्फी खींच,दिखाते शान
ओछे,घटिया जन-प्रतिनिधि चुनते
रीढ़विहीन धागों से भविष्य बुनते
समरसता पी जाता क्रूर दरिंदा है
पर ज़रा भी ,हम नहीं शर्मिंदा हैं !

आज उनकी, कल हमारी बारी होगी
बचोगे कैसे जब तलवार दोधारी होगी?
मौत महज समाचार नहीं हो सकती
ढ़ोग मानवता की बहंगी नहीं ढो सकती
लाचारों को नोंचता स्वार्थी कारिंदा है
पर, ज़रा भी, हम नहीं शर्मिंदा हैं!

लचर व्यवस्थाओं की ढेर पर बैठ
जाने हम किसे लगाते रहते हैं टेर
अपना सामर्थ्य सौंपकर निश्चिंत
इतिश्री कर्तव्य नहीं होते कदाचित्
चुप हैं सच जानकर कि वे रिंदा है
पर,ज़रा भी,हम नहीं शर्मिंदा हैं!

#श्वेता सिन्हा
५/१/२०२०

Friday 3 January 2020

नवल विहान


सुनो! हे सृष्टि के अदृश्य भगवान
अरजी मेरी,कामना तुच्छ तू मान
अस्तित्वहीन चिरनिद्रा में सो जाऊँ  
जागूँ धरा पर बनकर नवल विहान

बर्फ,ठिठुरती निशा प्रहर 
कंपकपाते अनजान शहर 
धुंध में खोये धरा-गगन के पोर 
सूरज की किरणों से बाँधूँ छोर
सर्द सकोरे भरूँ गुनगुनी घाम 
मलिन मुखों पे मलूँ नवल विहान

सूखती टहनी,बंजर खेत 
भूख से आकुल नन्हे पेट
बनूँ बीज हरियाऊँ धरती कोख
चंचल धारा,बरखा की बूँदें शोख
दुःख के अधरों की मीठी मुस्कान
तृप्ति स्वप्न नयन धरूँ नवल विहान

जाति धर्म के बेतुके झगड़े 
राजनीति के प्रपंची रगड़े
हृदय बसूँ  मानवता बनकर
प्रेम के पुष्प ईष्या से छनकर
एकसूत्र संस्कृति के गूँथूँ नेह वितान
बंधनहीन धरा पर लाऊँ नवल विहान

#श्वेता सिन्हा
३/१/२०२०


Wednesday 1 January 2020

यात्रा


समय की ज़ेब से निकालकर 
तिथियों की रेज़गारी
अनजाने पलों के बाज़ार में
अनदेखी पहेलियों की
गठरी में छुपे,
मजबूरी हैं मोलना
अनजान दिवस के ढेरियों को 
सुख-दुख की पोटली में
बंद महीनों को ढोते
स्मृतियों में जुड़ते हैं
खनखनाते नववर्ष।

हर रात बोझिल आँखें
बुनती हैं स्वप्न
भोर की किरणों से
जीवन की जरूरतों की
चादर पर खूबसूरत
 फुलकारी उकेरने की
 कभी राह की सुईयाँ
 लहुलुहान कर देती हैं उंगलियाँ
 कभी टूट जाते हैं हौसलों के धागे
 कर्मों की कढ़ाई की निरंतरता
 आशाओं के मोरपंख
 कभी अनायास ही जीवन को
 सहलाकर मृदुलता से
  ख़ुरदरे दरारों में
 रंग और खुशबू भर जाते हैं
महका जाते हैं जीवन के संघर्ष
पल,दिवस,महीने और वर्ष।

 अटल,अविचल,स्थिर
 समय की परिक्रमा करते हैं
 सृष्टि के कण-कण
 अपनी निश्चित धुरियों में,
 विषमताओं से भरी प्रकृति 
 क्षण-क्षण बदलती है
 जीवों के उत्पत्ति से लेकर
 विनाश तक की यात्रा में,
 जीवन मोह के गुरुत्वाकर्षण
 में बँधा प्रत्येक क्षण
 अपने स्वरूप नष्ट होने तक 
 दिन,वार,मास और वर्ष में
 बदलते परिस्थितियों के अनुरूप
नवल से जीर्ण की
 आदि से अनंत की
 दिक् से दिगंत की
अथक यात्रा करता है।

#श्वेता सिन्हा
१/१/२०२०

Tuesday 24 December 2019

सेंटा


मेरे प्यारे सेंटा 
कोई तुम्हें कल्पना कहता है
कोई यथार्थ की कहानी,
तुम जो भी हो 
लगते हो प्रचलित
लोक कथाओं के 
सबसे उत्कृष्ट किरदार,
स्वार्थी,मतलबी,
ईष्या,द्वेष से भरी
इंसानों की दुनिया में
तुम प्रेम की झोली लादे
बाँटते हो खुशियाँ
लगते हो मानवता के
साक्षात अवतार।

छोटी-छोटी इच्छाओं,
खुशियों,मुस्कुराहटों को,
जादुई पोटली में लादे
तुम बिखेर जाते हो
अनगिनत,आश्चर्यजनक
 उपहार,
सपनों के आँगन में,
वर्षभर तुम्हारे आने की
राह देखते बच्चों की
मासूम आँखों में
नयी आशा के
अनमोल अंकुर
बो जाते हो।

सुनो न सेंटा!
क्या इस बार तुम
अपनी लाल झोली में
मासूम बच्चों के साथ-साथ
बड़ों के लिए भी 
कुछ उपहार नहीं ला सकते?
कुछ बीज छिड़क जाओ न
समृद्धि से भरपूर
हमारे खेतों में,
जो भेद किये बिना
मिटा सके भूख
कुछ बूँद ले आओ न
जादुई  
जो निर्मल कर दे
जलधाराओं को,
ताल,कूप,नदियाँ
तृप्त हो जाये हर कंठ,
शुद्ध कर दो न...
इन दूषित हवाओं को,
नष्ट होती 
प्रकृति को दे दो ना
अक्षत हरीतिमा का आशीष।

तुम तो सदियों से करते आये हो
परोपकार, 
इस बार कर दो न चमत्कार,
वर्षों से संचित पुण्य का
कुछ अंश कर दो न दान
जिससे हो जाये 
हृदय-परिवर्तन
और हम बड़े भूलकर
क्रूरता,असंवेदनशीलता
विस्मृत इंसानियत
महसूस कर सके
दूसरों की पीड़ा,
व्यथित हो करुणा से भरे
हमारे हृदय,
हर भेद से बंधनमुक्त 
गीत गायें प्रेम और
मानवता के,
हम मनुष्य बनकर रह सके
धरा पर मात्र एक मनुष्य।

#श्वेता

Saturday 21 December 2019

हमें चाहिए आज़ादी

चित्र:साभार गूगल
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अधिकारों का ढोल पीटते 
अमन शहर का,चैन लूटते,
तोड़-फोड़,हंगामा और नारा
हमें चाहिए आज़ादी...!


बहेलिये के फेंके जाल बनते
शिकारियों के आसान हथियार,
स्वचालित सीढियाँ हम कुर्सी की
हमें चाहिए आज़ादी...!

दिन सत्याग्रह के बीत गये
धरना-घेराव क्या जीत गये?
जलाकर बस और रेल संपदा
हमें चाहिए आज़ादी...!

मौन मार्च किस काम के
बाँधते काली पट्टी नाम के,
बोतल बम,पत्थर से कहते
हमें चाहिए आज़ादी...!

त्वरित परिणाम बातों का हल
प्रयुक्त करो युक्ति छल-बल,
छ्द्म हितैषी ज्ञान बाँटते 
हमें चाहिए आज़ादी...!

परिसर,मैदानों,चौराहों पर
नुक्कड़,गलियों,राहों पर,
इसको मारे,उसको लूटे 
हमें चाहिए आज़ादी...!

हिंदू क्या मुसलिम भाई
भेड़-चाल सब कूदे खाई,
गोदी मीडिया शंख फूँकती
हमें चाहिए आज़ादी...!

वोट बैंक की हम कठपुतली 
कटी पतंग की हैं हम सुतली, 
धूर्त सूत्रधार के दृष्टिकोण से
हमें चाहिए आज़ादी...!

हिंसक भड़काऊ भाषण से
अधकचरे बौद्धिक राशन से
देश का भविष्य निर्माण करेंगे
हमें चाहिए आज़ादी...।

मातृभूमि का छलनी सीना
बँटता मन अब कैसे सीना?
द्वेष दिलों के भीड़ हो चीखे
हमें चाहिए आज़ादी...!

दर्द गुलामी का झेलते काश!
बंदियों, बंधुओं के दंश संत्रास
५७ से ४७ महसूसते,फिर कहते
हमें चाहिए आज़ादी....!

#श्वेता


Wednesday 18 December 2019

मौन हूँ मै


हवायें हिंदू और मुसलमान हो रही हैं,
मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही हैं।
मेरी वैचारिकी तटस्थता पर अंचभित
जीवित हूँ कि नहीं साँसें देह टो रही हैं।

धमनियों में बहने लगा ये कौन-सा ज़हर,
जल रहे हैं आग में सभ्य,सुसंस्कृत शहर,
स्तब्ध हैं बाग उजड़े,सहमे हुये फूल भी
रंजिशें माटी में बीज लहू के बो रही हैं।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही हैं।

फटी पोथियाँ टूटे चश्मे,धर्मांधता के स्वप्न हैं,
मदांध के पाँवों तले स्वविवेक अब दफ़्न है,
स्वार्थी,सत्ता के लोलुप बाँटकर के खा रहे
व्यवस्थापिका काँधे लाश अपनी ढो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

पक्ष-विपक्ष अपनी रोटी सेंकने में व्यस्त हैं,
झूठ-सच बेअसर आँख-कान अभ्यस्त हैंं,
बैल कोल्हू के,बुद्धिजीवी वर्तुल में घूमते
चैतन्यशून्य सभा में क़लम गूँगी हो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

दलदली ज़मीं पे सौहार्द्र बेल पनपते नहीं,
राम-रहीम,खेल सियासती समझते नहीं,
मोहरें वो कीमती बिसात पर सजते रहे
तमाशबीन इंसानियत पलकें भीगो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

खुश है सुख की बेड़ियाँ बहुत प्यारी लगे,
माटी की पुकार मात्र समय की आरी लगे,
तहों दबी आत्मा की चीत्कार अनसुनी कर
ओढकर जिम्मेदारियाँ चिंगारी राख हो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।

#श्वेता

Saturday 14 December 2019

वीर सैनिक

चित्र:साभार गूगल
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हिमयुग-सी बर्फीली
सर्दियों में
सियाचिन के
बंजर श्वेत निर्मम पहाड़ों 
और सँकरें दर्रों की
धवल पगडंडियों पर
चींटियों की भाँति कतारबद्ध
कमर पर रस्सी बाँधे
एक-दूसरे को ढ़ाढ़स बँधाते
ठिठुरते,कंपकंपाते,
हथेलियों में लिये प्राण
निभाते कर्तव्य
वीर सैनिक।

उड़ते हिमकणों से
लिपटी वादियों में
कठिनाई से श्वास लेते
सुई चुभाती हवाओं में
पीठ पर मनभर भार लादे
सुस्त गति,चुस्त हिम्मत
दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ  ,
प्रकृति की निर्ममता से
जूझते 
पशु-पक्षी,पेड़-विहीन
निर्जन अपारदर्शी काँच से पहाड़ों 
के बंकरों में
गज़भर काठ की पाटियों पर
अनदेखे शत्रुओं की करते प्रतीक्षा
वीर सैनिक।

एकांत,मौन में
जमी बर्फ की पहाड़ियों के
भीतर बहती जलधाराओं-सी
बहती हैं भावनाएँ
प्रतिबिंबित होती है
भीतर ही भीतर दृश्य-पटल पर
श्वेत पहाड़ों की 
रंगहीन शाखों से
झरती हैं बचपन से जवानी तक 
की इंद्रधनुषी स्मृतियाँ
"बुखारी"-सी गरमाहट लिये...,
गुनगुनी धूप के साथ
सरकती चारपाई,
मूँगफली,छीमियों के लिए
साथियों से
छीना-झपटी कुश्ती, लड़ाई,
अम्मा की गरम रोटियाँ
बाबा की झिड़की,
भाभी की बुनाई,
तिल-गुड़,नये धान की
रसीली मिठाई....,
स्मृतियों के चटखते
अलाव की गरमाहट में
साँझ ढले  
गहन अंधकार में
बर्फ के अनंत समुन्द्र में
हिचकोले खाती नाव पर सवार
घर वापसी की आस में
दिन-गिनते,
कभी-कभी बर्फीले सैलाब में
सदा के लिए विलीन हो जाते हैं
कभी लौट कर नहीं आते हैं
वीर सैनिक।

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...