चित्र-मनस्वी प्रांजल
लीपे चेहरों की भीड़ में
सच-झूठ पहचाने कैसे?
अनुबंध टूटते विश्वास की
मौन आहट जाने कैसे?
नब्ज संवेदना की टटोले
मोहरे बना कर मासूमियत को,
शह मात की बिसात में खेले
शकुनियों के रुप पहचाने कैसे?
खींचते है प्राण,अजगर बन
निष्प्राण अवचेतन करके
निगलते सशरीर धीरे-धीरे
फनहीन सर्पों को पहचाने कैसे?
सोच नहीं बदलता ज़माना
कभी नारी के परिप्रेक्ष्य में
बदलते युग के गान में दबी
सिसकियों को पहचाने कैसे?
बैठे हो कान में उंगलियाँ डाले
नहीं सुनते हो चीखों को?
नहीं झकझोरती है संवेदनाएँ?
मृत नहीं तुम जीवित हो माने कैसे?
--श्वेता सिन्हा