Wednesday, 18 August 2021

बौद्धिक आचरण



 बर्बरता के शिकार
रक्तरंजित,क्षत-विक्षत देह,
गिरते-पडते,भागते-कूदते
दहशत के मारे
आत्महत्या करने को आमादा
लोगों की
तस्वीरों के भीतर की
सच की कल्पना
भीतर तक झकझोर रही है।

पुरातात्विक विश्लेषकों के साथ
सभ्यताओं की 
अंतिम सीढ़ी पर लटके 
जिज्ञासुओं की भाँति
देखकर अनुमान के आधार पर 
अधजली लाशों का बयान,
मुर्दा इंसानियत की आपबीती का 
शाब्दिक विश्लेषण
बौद्धिक क्षमता का प्रदर्शन
मुर्दाघर में कार्यरत कर्मचारियों की भाँति
यंत्रचालित व्यवहार-सा प्रतीत होने लगता है। 

स्व,स्वजन को सुरक्षित मानकर
सहयोग के किसी भी रूप से
दूसरे कबीलों की कठिन 
परिस्थितियों पर
उसका संबल न बनकर
व्यंग्यात्मक प्रहार,उपदेश और ज्ञान की
बौछार
मूढ़ता है या असंवेदनशीलता?
यह मात्र मानवता से जुड़ा प्रश्न नहीं
बौद्धिक आचरण का 
सूक्ष्म विश्लेषण है।

किसी भी दौर में
ज़ुबान काटकर,
हाथ पैर बाँधकर,
ताकत और हथियारों के बल पर
सत्ता स्थापित करने की  कहानियाँ 
इतिहास के लिए नयी नहीं...,
नयी तो होती है
पुनर्जन्म लेकर भी 
गुलामों की फौज में शामिल होने की 
अपरिवर्तित प्रवृतियाँ,
हर बार आतातायियों के समर्थन में
गूँगों के निहत्थे समूहों को डराकर
इतिहास के प्रसिद्ध उद्धरणों को भूलकर,
स्वयं को सर्वशक्तिमान 
समझने का दंभ भरना
विनाश के बीज से
फूटने वाले अंकुर का
पूर्वाभासी गंध है।
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#श्वेता सिन्हा
१८ अगस्त २०२१

Sunday, 15 August 2021

प्रणाम...(शहीदों को )



करती हूँ प्रणाम उनको,शीश नत सम्मान में है,
प्राण दे,इतिहास के पृष्ठों में अंकित हो गये
जिनकी लहू की बूँद से माँ धरा पावन हुई
माटी बिछौना ओढ़ जो तारों में टंकित हो गये।

चित्रलिखित चित्त लिए चिता सजाते पुत्र की 
क्षीर, नीर, रिक्त आँचल स्मृतियाँ टटोले सूत्र की,
मौली,रोली राखी टीका बचपना धर कंठ में 
देश की रज भाल पर मल जो चंद्रांकित हो गये।

पोंछकर सिंदूर अपना शृंगार करती देश का
देह,मन औ प्रीत समिधा शांति यज्ञ परिवेश का,
तपस्विनी तेजोमयी के चक्षुओं से स्वप्न झरकर,
शिखर पर हिम के तिरंगे संग रेखांकित हो गये।

स्वतंत्रता का गीत दिव्यात्माओं का उपहार है
शौर्य गाथा पीढ़ियों की स्वदेश प्रेम का सार है
नमन है उनको प्रथम, बलिदान जो अज्ञात हैं
हो विलोपित पटल से हृदय में शीर्षांकित हो गये।
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-श्वेता सिन्हा
१५ अगस्त २०२१


Wednesday, 28 July 2021

कठपुतलियाँ


मुंडेर पर
दाना चुगने आती
चिडियों के टूटे पंख
इकट्ठा करती,
नभ में उड़ते देख
उनके कलरव पर
आनंदित होती
मैं चिड़िया हो जाना
चाहती हूँ,
मुझे चिड़िया पसंद है
क्योंकि अबूझ भाषा में
मुझसे बिना कोई प्रश्न किये
वो करती हैं मुझसे संवाद।

मखमली,कोमल,
खिलती कलियों, फूलों की
पंखुड़ियों को छूकर सिहरती हूँ
मुरझाये फूल देख
उदास हो जाती हूँ,
हवा में डोलते फूल देख
मुग्ध हो मुस्कुराने लगती हूँ,
मुझे फूल पसंद है
क्योंकि फूल नहीं टोकते मुझे
मेरी मनमानी पर।

आसमान में टँके
सूरज,चंदा से
छिटके मोतियों से
शृंगार करती,
बादलों की ढेरियों 
तारों के झुंडों में
सहज विचरती हूँ
मेरे आँगन में सांझ ढले
जादुई परियाँ आकर
जी-भर बतियाती है
मुझे मेरी कल्पनाओं की
आकाशगंगा पसंद है,
क्योंकि यथार्थ की
सारी पीड़ा ढककर
मुझे छुपा लेती है
अपनी बाहों में।

नदी,ताल,झील,झरनों की
निश्छल खिलखिलाहट
मुझे मछली बना देती हैं
मैं तैरती पानी के बीच
चट्टानों में बैठी 
प्रेमगीत गुनगुनाने लगती हूँ,
मुझे समुंदर की
अगड़ाईयाँ पसंद है
क्योंकि मेरे आक्रोश का 
उफ़ान सहकर भी
छिड़कता है अपनी शीतलता
बिना मेरी गलती बताये।

प्रकृति का मौन सानिध्य
मुझे मनुष्यों से ज्यादा
पसंद है,
यद्यपि प्रकृति का अंश है मानव
तथापि 
प्रकृति मुझसे मेरी
कमजोरियों पर प्रश्न नहीं करती
गणित की कमज़ोर छात्रा
तर्क-वितर्क के समीकरणों में उलझने
से बचना चाहती हूँ,
प्रश्नों के जाल को सुलझाने की
जटिलताओं से घबराकर
अपनी सहूलियत से
अपनी मनमर्जी से 
निरंकुश होकर जीने की
महत्वाकांक्षा में
जीवंत
 प्रकृति की ओट लेकर
परिस्थितियों को 
अपने मनोनुकूल
गढ़ने की लिप्सा में
पसंद करने लगती हूँ
 कठपुतलियाँ।

#श्वेता सिन्हा
२८जुलाई २०२१


 

Sunday, 18 July 2021

नन्ही बुलबुल


कच्ची उमर के पकते सपने
महक जाफ़रानी घोल रही है। 
घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।

मुस्कान,हँसी,चुहलबाज़ी
मासूम खेल की अनगिनी बाज़ी
स्मृतियों की गुल्लक में
उम्र रेज़गारी जोड़ रही है।

घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।

क़लम,कॉपी किताब की दुनिया
बाँध कलाई से समय की पुड़िया,
विस्तृत प्रागंण में नभ के
 स्वप्नों की डिबिया टटोल रही है।

घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।

 बादल,बारिश,जंगल,जुगनू
 सूरज,चंदा,तारों के घुँघरू,
मीन नयन की टोह लिए
नौका लहरों पर डोल रही है।

चटक-चटक आकाश झरे,
दिग्दिगंत अचरज से भरे,
कैनवास पर उड़ती तितली
रहस्य नक्षत्र के बोल रही है।

घर-आँगन की नन्ही बुलबुल
हौले-हौले पर खोल रही है।

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#श्वेता सिन्हा
१८ जुलाई २०२१



 

Sunday, 11 July 2021

प्रेम में डूबी स्त्री


चित्र : मनस्वी
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 प्रेम में डूबी स्त्री----
 प्रसिद्ध प्रेमकाव्यों की
बेसुध नायिकाओं सी 
किसी तिलिस्मी झरने में
रात-रातभर नहाती हैं
पेड़ की फुनगियों पर टँकें
इंद्रधनुष की खुशबू 
समेटकर अंजुरी से
मलकर देह पर
मत्स्यगंधा सी इतराती हैं।

प्रेम में डूबी स्त्री---
तितलियों की पीठ पर 
उड़ती हुई 
छुप जाना चाहती है अंतरिक्ष में
शाम ढले 
तोड़कर चाँद से
ढेर सारी कतरनें
प्रियतम के सपनों की ज़ेब में
भरना चाहती है,
कभी किसी घुटनभरे अंधेरे में
जो बिखरकर 
उजाला कर दे।
 
प्रेम में डूबी स्त्री ----
 स्मृतियों की पाती 
 बाँचती हुई
शब्दों की छुअन से
विह्वल होकर
धुँआ-धुँआ आँखों से
बहाती हैं
गंगाजल-सी 
पवित्र बूँदें
जिससे चला करती हैं
उसकी बंजर साँसें। 

प्रेम में डूबी स्त्री-
दुधमुंहे बच्चे सी
मासूम,निर्मल,
भावुकता से छलछलाती हुई
बेवजह हर बात पर हँसती,
विकल हो ज़ार-ज़ार रोती,
अकारण ही मुस्कुराती हैं
सही-गलत के
तर्कों में उलझे बिना
 प्रेम की गंध से मतायी
 फतिंगा बन 
आग को चूमकर
राख सी झर जाती हैं।

प्रेम में डूबी स्त्री---
मछली जैसी होती हैं
स्वयं में खोयी
मचलती रहती हैं
प्रेम की धाराओं में
बेआवाज़ गुनगुनाती हुई 
राह भूलकर
मछुआरे की नाव पर 
सवार होकर
एक दिन हो जाती है
टूटता सितारा।

प्रेम में डूबी स्त्री---
अनगिनत रूप धारण करती है
प्रेम के...
बाँधकर रखती है
अपने दुपट्टे की छोर से
भावनाओं की महीन चाभियाँ
और
बचाए रखती है
सृष्टि में प्रेम के बीज...।


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#श्वेता सिन्हा
११ जुलाई २०२१


Sunday, 4 July 2021

जूझना होगा


त्म हो रही
आशाओं से
ठहरने की विनती करना
व्यर्थ है,
उन्हें रोकने के लिए
जूझना होगा नैराश्य से
आशा को निराशा के जबड़े से
खींचते समय उसकी
नुकीली दंतपंक्तियों से
लहुलूहान उंगलियों के
घावों को
करना होगा अनदेखा।

जूझना होगा...
झोली फैलाये, भाग्य भरोसे
नभ ताकती अकर्मण्यताओं से...
आशा की चिरौरी में
बाँधी गयी मनौतियों के कच्चे धागे 
प्रार्थनाओं की कातर स्वर लहरियों से
अनुकम्पा बरसने की बाँझ प्रतीक्षा को 
बदलना होगा उर्वरता में
 जोतने होंगे 
 कर्मठता के खेत
 बहाने होंगे अमूल्य स्वेद।

जूझना होगा...
अनजाने झंझावातों से 
आस को बुझाने के लिए
अचानक उठी आँधियों से
घबराकर बुझने के पहले
दृढ़ आत्मबल की हथेलियों से
 नन्हीं लौ की घेराबंदी
बचा ही लेगी 
उजाले की कोई 
 किरण।

और...
आशा के लिए जूझते समय
समय को कोसने की जगह
करना होगा पलों से संवाद 
कदाचित्...
तुम्हारी जुझारूपन की
ज्योर्तिमय गाथा
समय की कील पर टंगी
 नैराश्य की पोटली में
बंद सुबकती आत्माओं
की मृतप्राय रगो में
भर दे प्रेरणा की
संजीवनी।

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#श्वेता सिन्हा
४ जुलाई २०२१

Saturday, 24 April 2021

आत्मा



आत्मा को ललकारती
चीत्कारों को अनसुना
करना आसान नहीं होता ...

इन दिनों सोचने लगी हूँ
एक दिन मेरे कर्मों का
हिसाब करती
प्रकृति ने पूछा कि-
महामारी के भयावह समय में
तुम्हें बचाये रखा मैंने
तुमने हृदयविदारक, करूण पुकारों,
साँसों के लिए तड़प-तड़पकर मरते
बेबसों जरूरतमंदों की 
क्या सहायता की?

मैं कहूँगी-

एक सभ्य और समझदार 
जिम्मेदार नागरिक की तरह,
महामारी से बचने के लिए
निर्गत दिशानिर्देशों का
अक्षरशः पालन किया।

अपनों को खोने को विवश
शोकाकुल,
घुटती साँस,तड़पती देह लिए
छटपटाते,लाचारों को
महामारी का ग्रास बनते 
देखकर आह भरती रही।

घटते-बढ़ते आँकड़ों का
सूक्ष्म विश्लेषण करती
सत्ताधीशों की मतलबपरस्ती 
व्यवस्थाओं की नाकामयाबी को
 खूब कोसती रही ।

मैंने सकारात्मक कविता लिखी
उत्साहवर्धक भूमिकाएँ लिखीं
मेरा प्रलाप सुनकर
प्रकृति ठठाकर हँस पड़ेगी
और मैं...
अपनी अकर्मण्यता को 
आवरणहीन देखकर
लज्जा से 
 फूट-फूटकर रो पडूँगी
तब प्रकृति मुझे 
मुट्ठीभर रेत बनाकर
मरूस्थल में बिखेर देगी।
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#श्वेता सिन्हा
अप्रैल २०२१


Sunday, 18 April 2021

वक़्त के अजायबघर में

वक़्त के अजायबघर में
अतीत और वर्तमान 
प्रदर्शनी में साथ लगाये गये हैं-

ऐसे वक़्त में
जब नब्ज़ ज़िंदगी की
टटोलने पर मिलती नहीं,

साँसें डरी-सहमी
हादसों की तमाशबीन-सी
दर्शक दीर्घा में टिकती नहीं,

ज़िंदगी का हर स्वाद
खारेपन में तबदील होने लगा
मुस्कान होंठो पर दिखती नहीं,

नींद के इंतज़ार में
करवट बदलते सपने 
रात सुकून से कटती नहीं,

पर फिर भी  कभी किसी दिन
 ऐसे वक़्त में...

चौराहे पर खड़ा वक़्त
राह भटका मुसाफ़िर-सा,
रात ज़िंदगी की अंधेरों में
भोर की किरणें टटोल ही लेगा...,

वक़्त के पिंजरे में
बेबस छटपटाते हालात
उड़ान की हसरत में
फड़फड़ाकर पंख खोल ही लेगें...,

मरूस्थली सुरंग के
दूसरी छोर की यात्रा में
हाँफते ऊँटों पर लदा,बोझिल दर्द
मुस्कुराकर बोल ही पड़ेगा...,

उदासियों के कबाड़
शोकगीतों के ढेर पर चढ़कर
ऐ ज़िंदगी! तेरी इक आहट 
उम्मीदों की चिटकनी खोल ही देगी...।

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#श्वेता सिन्हा
 १७ अप्रैल २०२१


 

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...