Wednesday, 5 January 2022

प्रेम के रंग


प्रेम कहानियाँ पढ़ते हुए
वह स्वयं ही 
कहानियों का 
एक पात्र बन जाती है
क्योंकि 
प्रेम की अलौकिक अनुभूतियां 
महसूसना पसंद है उसे

मन के समुंदर पर 
नमक की स्याही से
लिखकर प्रेम 
सीपियों में बंदकर
भावनाओं की लहरों के बीच
छोड़ देती अक्सर 
और हो जाती है
स्वतंत्र
बहने के लिए

प्रेम पात्रों के 
भावुक अभिनय में भीगी वह
सोचने लगती है
राम जैसा कोई 
मायावी हिरण के पीछे भागेगा
सिर्फ़ उसके हठ के लिए  
फिर उसके वियोग में
आँसुओं की नदी में तैरता हुआ
संसार के हर रावण से बचाकर
अपने हृदय के सिंहासन में
पुनः स्थापित करेगा
 
वह यह भी 
कल्पना करती कि कोई 
शिव की तरह
सिर्फ उसी से करेगा प्रेम
और मुझे 
स्थापित कर देगा 
पार्वती की तरह

प्रेम कहानियों की
मदमस्त कल्पनाओं में डूबी
हवाओं से बात करती है
पक्षियों के साथ उड़ती है
मौसम को डाकिया बनाकर
भेजती है
प्रेम की महकती चिट्ठियाँ 

अपने सुखद सपनों की
चकाचौंध में
वह भूल जाती है
दुष्यंत के प्रेम में भटकती
गर्भिणी शंकुतला की पीड़ा
दाँव पर लगी
भरी सभा में अपमान झेलती
द्रौपदी की व्यथा

वह यह भी भूल जाती है
कि,प्रेम की परिभाषा में बंधी
राधा,मीरा ,यशोधरा 
और उर्मिला
अपनी उपस्थिति का 
अहसास तो कराती रहीं
पर उपेक्षिति ही रही
 
प्रेम कहानियों के 
सभी रेखांकित पात्रों का 
जीवंत अभिनय करके भी 
जाने क्यों
वह अधूरी ही रही
नहीं मिला उसे 
मनचाहे पुरूष में
मनचाहा प्रेमी
शायद वह समझ नहीं पायी
कि,वास्तविकता में
प्रेम कहानियों के रंगीन चित्रों में लिपटे पात्रों को
छू लेने की जिद से
उत्पन्न इच्छाएं
भाप बनकर उड़ जाती हैं
और 
बदरंग होने लगते हैं
प्रेम के रंग

#श्वेता सिन्हा



Sunday, 19 December 2021

बदलाव का ढोंग


अंधपरंपराओं पर लिखी गयी
प्रसिद्ध पुस्तकें,
घिसी-पिटी रीति-रिवाज़ों पर आधारित
दैनंदिन जीवन के आडंबर पर
प्रस्तुत  शोधपत्र
लेख,कहानियां, कविताओं में
चित्रित मर्मस्पर्शी उद्धरण
इन्हीं सराहनीय कर्मों के अनुसार
राष्ट्रीय,अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
विश्व पटल पर पुरस्कृत,
 सम्मानित किये जाते 
लेखक,शोधार्थी, समाजसेवी,पर्यावरणविद
और भी न जाने कौन-कौन...।

हाशिये पर पड़े 
उपेक्षितों को 
अंधविश्वास से मुक्त कर
स्वस्थ वातावरण प्रदान करने की 
मुहिम में जुटे हुए अनगिनत लोग
संकरी,दुरूह
पगडंडियों से उतरकर 
खोह में बसे
जड़ों को जकड़े अंधविश्वास के कीड़़े को
विश्वास के चिमटे से खींचकर
निकालने का उपक्रम करते हैं...।

कुछ इने-गिने बागवां
सच्चे प्रयासों की खुरपी लिए
आजीवन खोदते हैं पाताल में गुम 
कुरीतियों की जड़़ों को,
करते रहते हैं 
वैचारिकी खर-पतवार 
निकालने का यत्न,
किंतु अधिकतर 
संघर्षों की पाटी के मध्य 
पिसते, जूझते लोगों को छूकर देखते है
उनके दुख पर
संवेदना प्रकटकर
मार्मिक संस्मरणों की 
पोटली बटोरकर
पर्याप्त संसाधन जुटाने का दिलासा देकर
वापस शहर की ओर लौट जाते हैं...।
 
अंधपरंपराओं की कोठरी की
झिर्रियों से रिसता ज़हरीला धुँआ
निडर,बेखौफ़ निगलता रहता है 
अपना कमज़ोर शिकार चुपचाप
अनवरत...,
और.... 
प्रतिष्ठित सभागारों में 
कुरीतियों के लिए संघर्षरत योद्धा और 
उनकी पुस्तकें सम्मानित होती हैं, 
अंधविश्वासों को ऊपर से झाड़-पोंछकर
पहना दिया जाता है
कलफ लगा लबादा
कुछ महत्वपूर्ण तिथियों को
जुलूस,धरना,प्रदर्शन में
आक्रोश के उबलते भावुक शब्दचित्रों का 
जीवंत रूपांतरण  किया जाता है
भावनाओं की लहरों में डुबकी लगा-लगाकर
उन्हीं पुराने वाक्यांशों से
नये उद्धोष किये जाते हैं
अंधपरंपराओं को
नारों से बदलने का
संकल्प लेकर।

#श्वेता सिन्हा

Thursday, 16 December 2021

समय का आलाप



शरद में 
अनगिनत फूलों का रंग निचोड़कर
बदन पर नरम शॉल की तरह लपेटकर
ओस में भीगी भोर की 
नशीली धूप सेकती वसुधा,
अपने तन पर फूटी
तीसी की नाजुक नीले फूल पर बैठने की
कोशिश करती तितलियों को 
देख-देखकर गुनगुनाते
भँवरों की मस्ती पर
बलाएँ उतारती है...
खेतों की पगडंडियों पर
अधखिले तिल के गुलाबी फूलों को
हथेलियों में भरकर
पुचकारती बासंती हवाओं की
गंध से लटपटाई वसुधा
सोचती है....
इन फूलों और
गेहूँ की हरी बालियों की
जुगलबंदी बता रही है
खेतों में शरद ने खिलखिलाहट
बो दिए हैं 
अबकी बरस
गेहूँ के साथ फूल भी खिलखिलायेंगे
तुम सुन रहे हो न
आने वाले समय का आलाप
उम्मीद का यह गीत
कितना मीठा है न..।

-श्वेता सिन्हा
१६दिसंबर २०२१

Wednesday, 8 December 2021

सुनो सैनिक



 सुनो सैनिक
तुम्हारे रक्त का चंदन
लगाकर मातृभूमि
शृंगार करती है।
कहानी शौर्य की
अविश्वसनीय वीरता की
गाथाएँ अचंभित,
सुनकर, पढ़कर, गर्वित होकर  
श्रद्धानत वंदन
भीरू मन को भी
धधकता अंगार करती है।

सुनो सैनिक...!
हृदय में अपने
तिरंगा टाँकना,
रगो को देशभक्ति के
नमक से पाटना
माटी के लिए
तुम्हारा जीवन स्पंदन
तुम्हें बहुमूल्य,
मनुश्रेष्ठ हार करती है।
ओ सरहद के अडिग चट्टान
तुम्हारी छत्रछाया
अदृश्य वन नंदन,
 तुम्हारा बलिदान
तुम्हें सुवासित
हरसिंगार करती है।
तुम्हारे रक्त का चंदन
लगाकर मातृभूमि
शृंगार करती है।
 नमन बारंबार करती है।


#श्वेता सिन्हा
८ दिसम्बर२०२१
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Thursday, 2 December 2021

उम्मीद



बेतरतीब उगी हुई
घनी जंगली घास-सा दुख
जिसके नीरस अंतहीन छोर के
उस पार कहीं दूर से
किसी हरे पेड़ की डाल पर
बोलती सुख की चिड़िया का 
मद्धिम स्वर 
उम्मीद की नरम दूब-सा
थके पाँव के छालों को
सहलाकर कहती है-
ज़िंदगी के सफ़र का
 खूबसूरत पड़ाव
 तुम्हारी प्रतीक्षा में है। 


बहुत पास से गुज़रा तूफान
धरती पर लोटती
बरगद,पीपल की शाख,
सड़क के बीचोबीच पसरा नीम
असमय काल-कलवित  
धूल-धूसरित,गुलमोहर की
डालियाँ, पत्तियाँ, कलियाँ 
 पक्षियों के घरौंदे,
बस्ती के कोने में जतन से बाँधी गयी
नीली प्लास्टिक की छत,
कच्ची माटी की भहराती दीवार
अनगिनत सपनें
बारिश में बहकर नष्ट होते देखती रही
उनके दुःख में शामिल हो 
शोक मनाती रही रातभर उनींदी
अनमनी भोर की आहट पर
पेड़ की बची शाखों पर
 घोंसले को दुबारा बुनने के उत्साह से
 किलकती तिनका बटोरती
 चिड़ियों ने खिलखिलाकर कहा-
एक क्षण से दूसरे क्षण की यात्रा में
 समय का शोकगीत गाने से बेहतर है
 तुम भी चिड़िया बनकर
उजले तिनके चुनकर 
 चोंच मे भरो और हमारे संग-संग
 जीवन की उम्मीद का
गीत गुनगुनाओ।

#श्वेता सिन्हा
३ दिसंबर २०२१


Thursday, 25 November 2021

जो मिल न सका



साँसों की लय पर
चल रही हूँ ज़िंदगी की रगो में
पर किसी की साँसें न हो सकी।

किसी के मन की 
ख़्वाहिशों की ढेर में शामिल
अपनी बारी की प्रतीक्षा में ख़ुद से बिछड़ गयी।

समय की डाल पर खिली
किसी पल पर मर मिटने को बेताब कली
मौसम की रूखाई से दरख़्त पर ही सूख गयी।

जिसकी गज़ल का
दिलकश रुमानी मिसरा होने की चाह थी
उसकी किताब में सवालों का पन्ना बन गयी।

इच्छाओं की बाबड़ी, 
सतह पर तैरते अतृप्ति के दानों के दुख में
तल में भरी अनगिन खुशियों से अंजान रही। 

जो मिल न सका
उसको छूने की तड़प नदी में बहाकर
अब चिड़िया हो जाना चाहती हूँ।

चाँद से कूदकर
अंधेरे में गुम होते सपनों से बेपरवाह
अब दिल के किवाड़ पर चिटकनी चढ़ाकर 
गहरी नींद सोना चाहती हूँ।

#श्वेता सिन्हा
२५ नवंबर २०२१


Friday, 8 October 2021

नवरात्र



 माँ 
इस सृष्टि का सबसे कोमल,स्नेहिल, पवित्र, शक्तिशाली ,सकारात्मक एवं ऊर्जावान भाव,विचार या स्वरूप है।
सूर्य,चंद्र,अग्नि,वायु,वरूण,यम इत्यादि देवताओं जो प्रकृति में स्थित जीवनी तत्वों के अधिष्ठाता हैं, के अंश से उत्पन्न देवी का आह्वान करने से तात्पर्य  मात्र विधि-विधान से मंत्रोच्चार पूजन करना नहीं अपितु अपने अंतस के विकारों को प्रक्षालित करके दैवीय गुणों के अंश को दैनिक आचरण में जागृत करना है।
 मानवता,प्रेम,करुणा, परोपकार, क्षमा और सहनशीलता जैसे संसार के सबसे कोमल भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती माँ खड्ग,चक्र,त्रिशूल, कृपाण,तलवार ढाल से सुशोभित
है,जो सिंह को वश में करती है, जो आवश्यकता होने पर फूलों की कोमलता त्यागकर ज्वालामुखी का रूप धारण कर शत्रुओं को भस्म करती है।
व्रत का अर्थ अपनी वृत्तियों को संतुलित करने का प्रयास और उपवास का अर्थ है अपने इष्ट का सामीप्य।
अपने व्यक्तित्व की वृत्तियों रजो, तमो, सतो गुण को संतुलित करने की प्रक्रिया ही दैवीय उपासना है।
देवी के द्वारा वध किये दानव कुवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसे-
महिषासुर शारीरिक विकार का द्योतक है
चंड-मुंड मानसिक विकार,
रक्तबीज वाहिनियों में घुले विकार,
ध्रूमलोचन दृश्यात्मक वृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है,
शुम्भ-निशुम्भ भावनात्मक एवं अध्यात्मिक।
प्रकृति के कण-कण की महत्ता को आत्मसात करते हुए
ऋतु परिवर्तन से सृष्टि में उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा का संचयन करना और शारीरिक मानसिक एवं अध्यात्मिक विकारों का नाश करना नवरात्रि का मूल संदेश है।
इस साधना से आत्मबल इतना मजबूत बने कि हम दैनिक जीवन के संघर्षों में किसी भी परिस्थिति पर संयम और प्रयास से विजय प्राप्त कर सके,अभीष्ट की प्राप्ति कर सकें। 
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Wednesday, 29 September 2021

स्त्रियोंं ने जिलाए रखा है

संवेदना से भरी
साधारण स्त्रियाँ   
अपनी भावनाओं को ज्ञानेंद्रियों
से ज्यादा महसूसती है
स्नेहिल रिश्तों को
नाजुक डोर की
पक्की गाँठ से बाँधकर
स्वजनों के अहित,उनसे बिछोह की
कल्पनाओं के भय को
व्रत,उपवास के तप में गलाकर
अपनी आत्मा के शुद्ध स्पर्श से 
नियति को विनम्रता से
साधने रखने का उपक्रम करती हैं
साधारण स्त्रियों ने जिलाए रखा है
सृष्टि में ईश्वर का अस्तित्व।
 
तुलसी पूजती हैं
आँवला, पीपल,बड़ के तने पर
कच्चे सूत बाँधती हैं
जौ रोपती हैं
करम की डाल आँगन में रोपकर
पति,बच्चों,भाई के लिए
मंगलकामना करती है
नदियों को पूजती हैं
पत्थरों को पूजती हैं
सूरज, चाँद और सितारे पूजती है
वृक्ष, फल,फूल,नदियाँ,
खेत,माटी,पशु,पक्षी,पत्थर पूजती हैं
सृष्टि के स्रष्टा के समक्ष नतमस्तक
अपनी भावनाओं की परिधि 

में संजोए दुनिया की सुरक्षा के लिए
अपनी दिनचर्या में
प्रकृति की सच्ची साधिकाएँ
साधारण स्त्रियों ने जिलाए रखा है
प्रकृति की सार्थकता।

बुद्धि और तर्क से रिक्त

समानता के अधिकारों से विरक्त
अंधविश्वास और अंधपरंपराओं के
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तटस्थ
पति और बच्चों में
एकाकार होकर
खुशियाँ मनाती हैं
नाचती,गाती पकवान बनाती हैं
सजती हैं, सजाती है
शुष्क जीवन को रंगों से भर देती हैं 
पुरातन काल से आधुनिक 
इतिहास की यात्रा में
सूचीबद्ध स्त्रियोंं और पुरुषों की
अनगिनत असहमतियों और असमानताओं की
क्रूर और असभ्य कहानियों के बावजूद
पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में
संस्कृतियों से भरे संदूक की
चाभियाँ सौंपती
साधारण स्त्रियोंं ने जिलाए रखा है
 लोकपरंपराओं  का अस्तित्व।
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-श्वेता सिन्हा
२९ सितंबर २०२१


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...