Monday, 10 July 2017

निरर्थक

मन सिंधु को मथकर
जो शब्द के
मोती बाहर आते है
रचकर सादे पन्नों पर
इन्द्रधनुष बन जाते है
मंथन अविराम निरंतर
भावों की लहरे
हर गति से लहराती है
उछलती है वेग से
खुशियों के पूरणमासी को
कभी तट को बिना छुये ही
मौन उदास लौटकर
वापस जाती है
भावों के ज्वार समेटे
अनगिनत विचारों की
गंगा जमना और प्रदूषित धाराएँ
पीकर भी सिंधु
तटबंधों का उल्लंघन नहीं करता
अथाह खारे जलराशि को लिए
कर्म पथ पर अग्रसर है
विचारों की लेखनी थामें
अंतर में निहित मानिक मूँगे
भाव लहर में मचलते है तो
कोई कोई ही पाता है
पर ऐसा नहीं कि
सिंधु की पीड़ा
दूजा समझ नहीं पाता है
तो क्या जिनके हाथ रीते हो
रत्न भंडारों से
कुछ सीपियाँ और शंख
किसी ने मुट्ठी भर रेत ही पायी हो
उन विचारों की लहरों का
आना जााना निरर्थक है??

     #श्वेता🍁




Friday, 7 July 2017

बुझ गयी शाम

बुझ गयी शाम गुम हुई परछाईयाँ भी
जल उठे चराग साथ मेरी तन्हाइयाँ भी

दिल के मुकदमे में दिल ही हुआ है दोषी
हो गया फैसला बेकार है सुनवाईयाँ भी

कर बदरी का बहाना रोने लगा आसमां
चाँद हुआ फीका खो गयी लुनाईयाँ भी

खामोशियों में बिखरा ये गीत है तुम्हारा
लफ़्ज़ बह रहे हैं चल रही पुरवाईयाँ भी

बेचैनी की पलकों से गिरने लगी है यादें
दर्द ही सुनाए है रात की शहनाईयाँ भी

      #श्वेता🍁

ज़िदगी तेरी राह में



जिंदगी तेरे राह में हर रंग का नज़ारा मिला
कभी खुशी तो कभी गम बहुत सारा मिला

जो गुजरा लम्हा खुशी की पनाह से होकर
बहुत ढ़ूँढ़ा वो पल फिर न कभी दोबारा मिला

तय करना है मंजिल सफर में चलते रहना है
वो खुशनसीब रहे जिन्हें हमसफर प्यारा मिला

हथेलियों से ढका कब तलक दीप रौशन रहता
पल भर मे बुझा जब हवाओं का सहारा मिला

जिसने जीता हो ज़िदगी को हर मुकाम पर
अक्सर ही अपनों के बीच वो हमें हारा मिला
           #श्वेता🍁



Thursday, 6 July 2017

वहम

आँखों के दरीचे में तेरे ख्यालों की झलक
और दिल के पनाहों में किसी दर्द का डेरा
शाखों पे यादों के सघन वन में ढ़ूँढ़ता तुम्हें
रात रात भर करता है कोई ख्वाब बसेरा
टूटकर कर जो गिर रहे ख्वाहिशों के पत्ते
अधूरे ख्वाब है जो न हुआ तेरा न ही मेरा
मुमकिन हो कि वहम निकले मेरे ये मन का
हमी से रात, हमसे ही होता है उसका सवेरा

एक एक पल


आँख में थोड़ा पानी होठों पे चिंगारी रखो
ज़िदा रहने को ज़िदादिली बहुत सारी रखो

राह में मिलेगे रोड़े,पत्थर और काँटें भी बहुत
सामना कर हर बाधा का सफर  जारी रखो

कौन भला क्या छीन सकता है तुमसे तुम्हारा
खुद पर भरोसा रखकर मौत से यारी रखो

न बनाओ ईमान को हल्का सब उड़ा ही देगे
अपने कर्म पर सच्चाई का पत्थर भारी रखो

गुजरते लम्हे न लौटेगे कभी ये ध्यान रहे
एक एक पल को जीने की पूरी तैयारी रखो

संभव नहीं






राह के कंटकों से हार मानूँ मैं,संभव नहीं।
बिना लड़े जीवन भार मानूँ मैं,संभव नहीं।

हंसकर,रोकर ,ख्वाहिश बोकर,भूल गम
खुशियों पे अधिकार मानूँ मैं, संभव नहीं।

रात है तो ख्वाब है,पलकों पे नव संसार है
स्वप्न को जीवन आधार मानूँ मैं,संभव नहीं।

तुम न करो मैं न करूँ,ऐसे न होते नेह डोर
प्रेम को लेन देन व्यापार मानूँ मैं,संभव नहीं।

तम उजाला मन भरा,और कुछ है धरा नहीं
बुरा देख जग को बेकार मानूँ मैं,संभव नहीं।

         #श्वेता🍁

Tuesday, 4 July 2017

कभी तो नज़र डालिए

कभी तो नज़र डालिए अपने गिरेबान में
ज़माना ही क्यों रहता बस आपके ध्यान में

कुछ ख्वाब रोज गिरते है पलकों से टूटकर
फिर भोर को मिलते है हसरत की दुकान में

मरता नहीं कोई किसी से बिछड़े भी तो
यही बात तो खास है हम अदना इंसान में

दूरियों से मिटती नहीं गर एहसास सच्चे हो
दूर नज़र से होके रहे कोई दिल के मकान में

दावा न कीजिए साथ उम्रभर निभाने का
जाने वक्त क्या कह जाये चुपके से कान में

        #श्वेता🍁

सच के धरातल पर बरखा

भोर की अधखुली पलकों में अलसाये
ज्यों ही खिड़कियों के परदे सरकाये
एक नम का शीतल झोके ने दुलराया
झरोखे के बाहर फैले मनोरम दृश्य से
मन का फूल खिला जोर से मुस्काया
टिपटिपाती बारिश की मखमली बूँदे
झूमते पेड़ की धुली पत्तियों ने लुभाया
फुदककर नहाती किलकती चिड़िया
घटाओं ने नीले आसमां को छुपाया
भीगती प्रकृति की सुषमा में खोये
भाव विभोर मन लगे खूब हरषाया
हाथ में चाय की प्याली और अखबार
देखनेे शहर का क्या समाचार आया
ओह चार दिन से हो रही बारिश ने
गली मुहल्ले में है आफत बरसाया
कल रात ही एक घर की दीवार ढही
जिसके नीचे मजदूर ने बेटा गँवाया
मौसमी बीमारियों से भरे अस्पताल
दवाखानों में भी खूब मुनाफा कमाया
सफाई के अभाव में बजबजाती नाली ने
सारे  कचरे को सड़कों पर फैलाया
बदबू और सड़ांध से व्याकुल हुये लोग
चलती हवा में साँस लेना मुहाल हो आया
अभी तो नदियों के अधर भी न भींगे है
नाले का पानी घरों में घुसा कहर बरपाया
अखबार मोड़कर रखते हुये सोचने लगी
ऊफ्फ्फ इस बारिश ने कितनों को सताया
बोझिल हुआ मन दुर्दशा ज्ञात होते ही
है ये ख़ता किसकी रब ने सुधाजल बरसाया
कंकरीट बोता शहर विकास की राह पर
तालाब भरे नालियों पे ही आशियां लगाया
वज़ह चाहे कुछ भी हो सच बस इतना ही
बारिश ने शहर की खुशियों में ग्रहण लगाया
छत की खिड़कियों से दिखती है सुंदर बरखा
 सच की धरातल ने तो सारा खुमार उतराया

       #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...