Sunday, 10 December 2017

ख़्यालों में कोई


शाख़ से टूटने के पहले
एक पत्ता मचल रहा है।
उड़ता हुआ थका वक्त,
आज फिर से बदल रहा है।

गुजरते सर्द लम्हों की
ख़ामोश शिकायत पर
दिन ने कुछ धूप जमा की है,
साँझ की नम आँगन में
चाँदनी की शामियाने तले
दर्द के शरारों का दखल रहा है।

सहेजकर रखे याद के खज़ानें में
एक-एक कीमती नगीना 
गुलाबी रुमाल में बाँधकर
पिटारे में जो रक्खी थी,
उन महकते ख़तों से निकलकर
ख़्यालों में कोई मचल रहा है।

बड़ी देर से थामकर रखी है
कच्ची सी डोर उम्मीद की
कुछ खोने-पाने के डर से परे
अभिमंत्रित पूजा की ऋचाओं सी,
हृदय के महीन तारों से लिपटा
प्रेम ही प्रेम पवित्र सकल रहा है।

       #श्वेता🍁

Friday, 8 December 2017

हाँ मैं ख़्वाब लिखती हूँ


हाँ,मैं ख़्वाब लिखती हूँ
अंतर्मन के परतों में दबे
भावों की तुलिका के
नोकों से रंग बिखेरकर
शब्द देकर 
मन के छिपे उद्गगार को
मैं स्वप्नों के महीन जाल
लिखती हूँ।

श्वेत श्याम भावों के
स्याह-उजले रंग से 
पोते गये हृदय के
रंगहीन दीवारों पर
सजाकर चटकीले रंगों को
बनाये गये 'मुखौटे'के भीतर कैद
उन्मुक्त आकाश की उड़ान,
ललचाई आँखों से 
चिडि़यों के खुले पंख देखती
आँखों के सारे 
मैं राज़ लिखती हूँ।

शून्य में तैरते बादलों के परों से
चाँद के पथरीले जमीं पर
चाँदनी के वरक लगाकर
आकाशगंगा की गहराई में उतर
झुरमुटों के जुगनू के जाले देखती
मौन पेड़ों से बतियाते 
चकोर की व्यथा की दर्द भरी
मैं तान लिखती हूँ।

यथार्थ की धरातल पर खड़ी
पत्थरों की इमारतों के
सीने में मशीन बने 
स्पंदनहीन इंसानों के 
अंतर के छुपे मनोभावों के
बूँद-बूँद कतरों को
एहसास की मोतियों में पिरोकर
मैं अनकहा हाल लिखती हूँ।

चटख कलियों की पलकों की
लुभावनी मुस्कान 
वादियों के सीने से लिपटी 
पर्वतशिख के हिमशिला में दबी
धड़कते सीने के शरारे से
पिघलती निर्मल निर्झरी
हर दिल का पैगाम सुनती हूँ
हाँ,मैं ख्वाब लिखती हूँ।

#श्वेता🍁


सूरज


भोर की अलगनी पर लटके
घटाओं से निकल बूँदें झटके
स्वर्ण रथ पर होकर सवार
भोर का संजीवन लाता सूरज

झुरमुटों की ओट से झाँकता
चिड़ियों के परों पर फुदकता
सरित धाराओं के संग बहकर
लिपट लहरों से मुस्काता सूरज

धरा के कण कण को चूमता
बाग की कलियों को सूँघता
झिलमिल ओस की बूँदें पीकर
मदमस्त होकर बौराता सूरज 

उजाले की डिबिया को भरकर
पलक भोर की खूब सजाता 
गरमी,सरदी, बसंत या बहार 
साँकल आके खड़काता सूरज

महल झोपड़ी का भेद न जाने
जीव- जगत वो अपना माने
उलट किरणों की भरी टोकरी
अंधियारे को हर जाता  सूरज


       #श्वेता🍁

Sunday, 3 December 2017

मेरी मिसरी डली




सोनचिरई मेरी मिसरी डली 
बगिया की मेरी गुलाबी कली 

प्रथम प्रेम का अंकुर बन
जिस पल से तुम रक्त में घुली 
रोम-रोम, तन-मन की छाया
तुम धड़कन हो श्वास में ढली 

नन्ही नाजुक छुईमुई गु़ड़िया
छू कर रूई-फाहे-सी देह को,
डबडब भर आयी थी अँखियाँ 
स्पर्श हुई थी जब उंगलियां मेरी।

महका घर-आँगन का कोना
चहका मन का खाली उपवन,
चंदा तारे सूरज फीके हो गये
पवित्र पावन तुम ज्योत सी जली।

हँसना-बोलना, रूठना-रोना तेरा
राग-रंग, ताल-सप्तक झंकृत
हर रूप तुझमें ही आये नज़र
सतरंगी इंद्रधनुष तुम जीवन से भरी।

एक आह भी तुम्हारा दर्द भरा
नयनों का अश्रु बन बह जाता है
मौन तुम्हारा जग सूना कर जाता है
मेरी लाडो यही तेरी है जादूगरी

मैं मन्नत का धागा हूँ तेरे लिए
तुझमें समायी मैं बनके शिरा
न चुभ जाये काँटा भी पाँव कहीं
रब से चाहती हूँ मैं खुशियाँ तेरी

         #श्वेता🍁


Saturday, 25 November 2017

रात


सर्द रात के 
नम आँचल पर
धुँध में लिपटा
 तन्हा चाँद
जाने किस
ख़्याल में गुम है
झीनी चादर
बिखरी चाँदनी
लगता है 
किसी की तलाश है
नन्हा जुगनू 
छूकर पलकों को
देने लगा 
हसीं कोई ख़्वाब है
ठंडी हवाएँ भी
पगलाई कैसे
चूमकर  आयीं  
लगता तेरा हाथ हैं 
सिहरनें  तन की 
भली लग रहीं 
गरम दुशाला लिए 
कोई याद है
असर मौसम का 
या दिल मुस्काया
लगता है फिर 
चढ़ा ख़ुमार है
सितारे आज 
बिखरने को आतुर
आग़ोश  में आज 
मदहोश रात है

 #श्वेता🍁

Friday, 24 November 2017

शाम

शाम
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उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर
साँझ दीये केे बाती में
जल गयी भीनी भीनी शाम
थककर लौट रहे खगों के
परों पे सिमट गयी
खोयी सी मुरझायी शाम
उदास दरख्तों के बाहों में
पत्तों के दामन में लिपटी
सो गयी चुप कुम्हलाई शाम
संग हवा के दस्तक देती
सहलाकर सिहराती जाती
उनको छूकर आयी है
फिर से आज बौराई शाम
देख के तन्हा मन की खिड़की
दबे पाँव आकर बैठी है
लगता है आज न जायेगी
यादों में पगलाई शाम

      #श्वेता🍁
   

Tuesday, 21 November 2017

एक लड़की.......कथा काव्य

सारी दुनिया से छुप- छुपकर वो ख़ुद  से बातें करती थी
नीले नभ में चिड़ियों के संग बहुत दूर उड़ जाती थी
बना के मेघों का घरौंदा हवा में ही वो फिरती थी
रंग-बिरंगे सुमनों के गाँव एक तन्हा लड़की रहती थी।

एक दिन एक मुसाफ़िर आया उसके सूने आँगन में
तितली बन वह उड़ने लगी लाल फूलों के दामन में,
जी भर के वो ख़ूब नहायी नेह के रिमझिम सावन में
सब तन्हाई वह भूल गयी उस राहगीर मनभावन में,

वो हंसता वो हंसती वो चुप हो जाए रोती थी
वो रूठे सब जग सूना वो डाँटे ख़ुश होती थी।
यूँ तो वो बडी़ निडर पर उसको खोने से डरती थी
उसको मिलने की ख़ातिर वो सारी रात न सोती थी,

एक दिन,
उस लड़की को छोड़ कर चुपके से मुँह मोड़ गया,
था तो एक मुसाफ़िर ही, उसको तो वापस जाना होगा,
उसकी दुनिया के लोगों में फिर उसको खो जाना होगा,
कहकर गया 'थामे रहो आस की डोर वापस मैं आऊँगा'

उस लड़की को पगली कहता था वो 
आज भी वह पागल लड़की पागल-सी फिरती है
हर फूल से अपने बाग़ों के उसकी बातें करती है
हवा को छू-छूकर उसको महसूस वो करती है
जब सारा जग सो जाता वो चंदा के संग रोती है
भींगी पलकों से राह तके एक आहट को टोहती है,
कोई संदेशा आया होगा पागल बस ये कहती है
जीवन जीने की कोशिश में पल-पल ख़ुद ही से लड़ती है,
हर धड़कन में गुनती है पागल, हर एहसास को पीती है,
नीम अंधेरे तारों की छाँव में आज भी बैठी मिलती है,
साँझ की डूबती किरण-सी वो बहुत उदास-सी रहती है,
न हंसती न मुस्काती है बस उसका रस्ता वो तकती है,
वो पागल आज भी उन यादों को सीने से लगाये जीती है।
सिसक-सिसककर आठ पहर अपने ही आँसू पीती है। 



           #श्वेता🍁

Monday, 20 November 2017

पत्थर के शहर में


पत्थर के शहर में शीशे का मकान ढूँढ़ते हैं।
मोल ले जो तन्हाइयाँ ऐसी एक दुकान ढूँढ़ते हैं।।

हर बार खींच लाते हो ज़मीन पर ख़्वाबों से,
उड़ सकें कुछ पल सुकूं के वो आसमां ढूँढ़ते हैं।

बार-बार हक़ीक़त का आईना क्या दिखाते हो,
ज़माने के सारे ग़म भुला दे जो वो परिस्तां ढूँढ़ते हैं।

जीना तो होगा ही जिस हाल में भी जी लो,
चंद ख़ुशियों की चाह लिए पत्थर में जान ढूँढ़ते हैं।

ठोकरों में रखते हैं हरेक ख़्वाहिश इस दिल की,
उनकी चौखट पे अपने मरहम का सामान ढूँढ़ते हैं।


    #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...