Wednesday 7 February 2018

वो गुम रहे


वो गुम रहे अपने ही ख़्यालों की धूल में
करते रहे तलाश जिन्हें फूल-फूल में

गीली हवा की लम्स ने सिहरा दिया बदन
यादों ने उनकी छू लिया फिर आज भूल में

उसने तो बात की थी यूँ ही खेल-खेल में
पर लुट गया ये दिल मेरा शौक़े-फ़ज़ूल में

होने लगा गलियों का जिक्र आसमां में
फिर उम्रभर अटे रहे लफ़्ज़ों की धूल में

एहसान आपका जो वक़्त आपने दिया
चुभी किर्चियां फूलों की निगाहे-मलूल में

     #श्वेता🍁


निगाहे-मलूल = उदास आँखों में

Friday 2 February 2018

कोमल मन हूँ मैं


ज्योति मैं पूजा की पावन
गीतिका की छंद हूँ मैं
धरा गगन के मध्य फैली
एक क्षितिज निर्द्वन्द्व हूँ मैं

नभ के तारों में नहीं हूँ
ना चाँदनी का तन हूँ मैं
कमलनयन प्रियतम की मेरे
नयनों का उन्मन हूँ मैं

न ही तम में न मैं घन में
न मिलूँ मौसम के रंग में
पाषाण मोम बन के बहे
वो मीत कोमल मन हूँ मैं

जो छू ना पाये हिय तेरा
वो गीत बनकर क्या करूँ
चिर सुहागन प्रीति पथ में
अमिट रहे वो क्षण हूँ मैं

     #श्वेता🍁

Tuesday 30 January 2018

इंद्रधनुष



मौन की चादर डाले
नीले आसमान पर
छींटदार श्वेत बादलों की 
छाँव में
बाँह पसारे हवाओं के संग
बहते परिंदे मानो
वक़्त के समुन्दर में 
निर्विकार उमड़ते ज्वार
से किनारे पर बिखरे 
मोतियों को सहलाते हैं
अक्सर झरोखे के पीछे से
मंत्रमुग्ध नभ में विलीन
स्वप्निल आँखों के कैनवास पर
अनजाने स्पर्श से
जीवित होने लगती हैं 
निर्जीव पड़ी तस्वीरें
लंबे देवदार के वृक्षों की कतारों के
ढलान पर लाल बजरी की पगडंडियों से
झील तक पहुँचते रास्ते पर
जंगली पीले फूलों को चूमते
रस पीते भँवरे गुनगुनाने लगते हैं
चौकोर काले चट्टान पर बैठी मैं
घुटनों पर ठोढ़ी टिकाये
हथेलियों से गालों को थामे
हवाएँ रह-रह कर 
बादामी ज़ुल्फ़ों से खेलती है
तब धड़कनों को चुपचाप सुनती
मदहोश ख़्याल में गुम
दूर तक फैले गहरे हरे पानी के ग़लीचे पर
देवदार के पत्तों से छनकर आती
धुंधली सूरज की मख़मली किरणें
जो झीेल के आईने में गिरते ही
बदल जाती है 
इंद्रधनुषी रंगों में
और पानी से खेलती हथेलियों पर
पसर जाती है बाँधनी चुनर सी
उन चटकीले रंगों को 
मल कर मन के बेजान पन्नों पर
उकेरती हूँ 
शब्दों की तूलिका से 
कविताओं के इंद्रधनुष।


      #श्वेता सिन्हा

Sunday 28 January 2018

तितली


                            मुद्दतों बाद 
आज फिर से
भूली-बिसरी 
राहों से गुज़रते 
हरे मैदान के 
उपेक्षित कोने में  
गुलाब के सूखे झाड़
ने थाम लिया दुपट्टा मेरा
टूटकर बिखरी पंखुड़ियाँ 
हौले से
छू गयी पाँव की उंगलियां
सुर्ख रंग
पोरों से होकर
ठिठुरती धूप में फैल गयी
काँपती धड़कनों में,
कुनकुनी किरणें 
अथक प्रयास करने लगी
जमी वादियों की बर्फ़ पिघलाने की
एक गुनगुना एहसास 
बंद मुट्ठियों तक आ पहुँचा
पसीजी हथेलियों की 
आडी़ तिरछी लकीरों से
अनगिनत रंग बिरंगे
सोये ख़्वाब फिर से
ख़्वाहिशों के आँगन में
तितली बन उड़ने लगे।
               -----श्वेता🍁

Friday 26 January 2018

पुस्तक समीक्षा:प्रिज़्म से निकले रंग


पुस्तक समीक्षा

काव्य संग्रह-प्रिज़्म से निकले रंग


कवि         -  रवीन्द्र सिंह यादव

प्रकाशक     - ऑन लाइन गाथा

मूल्य          - ५० रुपये


"रवीन्द्र जी की मौलिक रचनाएँ"
रवीन्द्र जी बहुत ज़्यादा नहीं लिखते, बे-वजह नहीं लिखते हैं पर जो भी लिखते हैं  उसमें कुछ न कुछ सार्थक संदेश अवश्य छुपा होता है।
उनकी लेखनी के प्रिज़्म से निकल कर शब्द किरणें इंद्रधनुषी रंग की कविताओं में बदल गयीं। जीवन के विविध रंगों को समेटे आदरणीय "रवीन्द्र सिंह यादव" जी की पहली कृति "काव्य-संग्रह" में  उनकी अभिव्यक्ति अनुपम छटा बिखेर रही है। मौलिकता और सौम्य भावों से लबरेज़ समाज के चिंतनीय विषयों को हर कविता छूती नज़र आती है।
प्रकृति,अतीत और वर्तमान में अद्भुत साम्य कवि की विराट सोच को दर्शाता है।


इस कविता संग्रह में कुल ३४ रचनाएँ हैं जिनमें जीवन के हर रंग को उकेरा गया है।

सर्वप्रथम माँ वागीश्वरी की सुंदर प्रार्थना में समाहित भाव माँ के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित कर लोककल्याणकारी भाव मुखर होकर कवि के विचारों की उत्कृष्टता का एहसास करा जाते हैं। जब वो कहते है-

हे   माँ !
उन   मस्तिष्क   का  विवेक
जाग्रत   रखना
जिनकी   अँगुलियों   को
भोले  जनमानस   ने
परमाणु - बटन   दबाने  का  अधिकार  सौंप  दिया  है ,


माँ वीणा वादिनी से यह कहना कि -

उन  दीन -दुखी , निबल, जर्जर   को  संबल  देना

जो       मूल्यों     की     धरोहर     सहेजे  हैं,
निज स्वार्थ से ऊपर उठकर सर्व मंगल-मांगल्य की भावना से भरी यह प्रार्थना सही मायने में एक सदविचारयुक्त प्रार्थना है।

           संपूर्ण नारी जाति को सम्मानीय और सर्वोच्च शिखर पर बिठाकर पूजने वाले,औरतों की तरफ़ से उनकी समस्याओं पर गंभीर सवाल करते,उनकी दयनीय दशा पर तीखे व्यंग्य करते बेहद प्रभावशाली-  
"सिर्फ़ एक दिन नारी का सम्मान शेष दिन.....?" गद्य और पद्य की  मिश्रित शैली में  महिला दिवस के अवसर पर लिखी गयी रचना विचारणीय है।
औरतों पर हो रहे अत्याचारों से मन को विचलित करती रचना-
 "मैं वर्तमान की बेटी हूँ " में -
बेटी   ख़ुद   को  कोसती   है,
विद्रोह   का  सोचती    है ,
पुरुष-सत्ता  से  संचालित  संवेदनाविहीन  समाज  की ,
विसंगतियों  के   मकड़जाल  से   हारकर ,
अब  न लिखेगी   बेटी -
"अगले  जनम  मोहे   बिटिया  न  कीजो  ,
  मोहे    किसी    कुपात्र     को   न  दीजो  "।
ऐसी भावपूर्ण पंक्तियाँ  कवि के  संवेदनशील मनोभाव को इंगित करते हैं।
और "ममता" भी सोचने पर मज़बूर करती है जिसमें स्त्री-सुलभ गुणों से परे जाती एक स्त्री का ज़िक्र है।
        देशभक्ति के  जज़्बे से भीगी हुई "सैनिक", "सैनिक की जली हुई रोटियाँ" में -
हमने  तो  सिर्फ़
अपना  मन  मसोस  लिया,
ख़ुद  को तिलमिला  लिया,
राष्ट्रीय-सुरक्षा   के  गंभीर  सवालों  से,
ख़ुद   को  खदबदा  लिया।

एक आम जन की बे-बसी को शब्द देती रचना आम पाठक के मन तक पहुँचती है।
इन रचनाओं में जहाँ सैनिकों की पीड़ा को बारीकी से बुना गया है वहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की देशभक्ति और और उनकी  मृत्यु के रहस्य पर अनेक प्रश्न पूछती विचारणीय कविता भी मौजूद है जिसकी पंक्तियाँ हैं-

स्वतंत्रता  का  मर्म  वह  क्या  जाने,  
जो  स्वतंत्र  वातावरण  में  खेला   है,  
उस   पीढ़ी   से  पूछो! 
जिसने   पराधीनता   का  दर्द   झेला   है!! 

      इतिहास और वैदिक साहित्य जैसे अछूते विषय पर कविता लिखना आसान नहीं कवि की सृजनशीलता और बेबाक लेखन "जलंधर" में मुखर हो जाती है।
"जलंधर"एक पौराणिक पात्र के माध्यम से चमत्कृत करती शैली में बेहद सराहनीय रचना जिसे बार-बार पाठकों को पढ़ने का मन करे। कुछ ख़ास पंक्तियाँ-

                          सहज     संतुलन   सृष्टि का
रखने   को    विष्णु- लीला  है 
पीते -पीते   तीक्ष्ण     हलाहल
शिव- कंठ  अभी  तक नीला है
छल, दम्भ, झूठ, पाखण्ड सभी 
छाये   हैं    सत्य    दबाने    को आज   जलंधर   फिर  आया  है

हाहाकार   मचाने  को।


"आज   जलंधर   फिर  आया  है" एक लंबी कविता होने के बाबजूद कहीं लय नहीं टूटती यही ख़ासियत है कवि की शैली की।

"प्रकृति" , "उत्सव","जीवन की विसंगतियों पर लिखी रचनाओं में जहाँ एक ओर जीवन के ख़ूबसूरत रंग हैं वहीं सामाजिक ढाँचे और वर्तमान परिदृश्य से रोष भी जताया है। जहाँ होली और बसंत के माधुर्य से भरी शब्द रचना सुंदर कल्पनालोक की परी कथा जैसे कोकिल तान मन में रागिनी घोलते हैं  वहीं कविता के अंत तक आते-आते कवि यथार्थ का आईना दिखलाना नहीं भूलते। कहीं-कहीं यथार्थ कविता की कल्पनाशीलता और  उसके माधुर्य पर हावी हो जाता  है जो कि पाठक को अटपटा लग सकता है। इनकी लगभग हर कविता में एक सार्थक चिंतनशीलता और संदेश दृष्टिगोचर होता है।

"नोटबंदी", "पूँजीवाद का शिकंजा" कविताओं में गंभीर सामाजिक और समसामयिक चिंतन और ज्वलंत प्रश्न करते संवेदनशील कविमन की विह्वलता समाज के एक जागरूक बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है।

"ओस" कविता में एक बच्ची के कौतुक को शांत करते आधुनिक परिवेश का चित्रण करते हुये जब कहते हैं-


सवालों-जवाबों  के  बीच  पहुँचे  पार्क,
चमका   रही    थीं  ओस - कणों   को,
भोर           की     मनहर      रवीना,
           ये   कुदरत  के आँसू   हैं  या  पसीना........?


तो ओस की बूँदें अनायास ही नगीने-सी आँखों के सामने छा जाती हैं।
                                   संवेदना शून्य होते समाज  का/ यह  सच/ अब   किसी   आवरण   में  नहीं   ढका   है /अंतर्मन  आज    सोच-सोचकर   थका    है,/  अपनी   ही  लाश  ढोता  आदमी/  अभी   नहीं  थका   है।
पिता" के लिए लिखी गयीं इन पंक्तियों में भावनाओं की सरिता में गोते लगाने से आप ख़ुद को नहीं रोक पायेगें।


गद्य और पद्य की  मिश्रित शैली में लिखी एक बेहद दिलक़श कविता जो किसी भी दिल को छू ले -

लोग  ढूँढ़ेंगे   दर्द-ओ-सुकूं   

मोहब्बत  की इस  निशानी  में,

देखने   आएगी  दुनिया  

साहिल -ए -जमुना खड़ा  है  ताज  वहां । 

मुंतज़िर  है   कोई  

सुनने      को      मेरे     अल्फ़ाज़   वहाँ ।   


         ये रचना निश्चय ही आप के जे़हन से दिल की वादियों में उतर जायेगी  आपके होंठ अनायास ही गुनगुना पड़ेंगे।

"फूल से नाराज़ होकर तितली सो गई", "ये कहाँ से आ गयी बहार है", "धीरे-धीरे ज़ख़्म सारे अब भरने को आ गये", "दोपहर बनकर अक्सर न आया करो", "नयी सुबह" जैसी कई  कविताएँ हैं  जिन्हें आप गुनगुनाये बिना नहीं रह सकेंगे। उर्दू के शब्दों का कलात्मक प्रयोग कविताओं के लालित्य में चार चाँद लगाता है। पाठकों की सुविधा का ध्यान रखते हुये उर्दू / हिंदी के कठिन शब्दों के अर्थ भी कवि ने लिखे हैं  ताकि एक आम पाठक रचनाओं का आस्वादन आसानी से कर सके। छंदात्मक और मुक्त छंद शैली में लिखी  गयीं कविताएँ सहज पाठक को आकर्षित करती हैं।
"विश्वास" और "अप्रैल फूल" में राजनीति के धुंरधरों का चरित्र-चित्रण व्यंगात्मक लहज़े में बेहद सटीक है। बेबाकी से सत्य लिखना कवि की निडरता और साहसी होने का परिचायक है।

अंत के भागों में हमारे दैनिक जीवन में आसपास बिखरे पात्रों पर रची गयी "मैं मजदूर हूँ", "मदारी" "लकड़हारा"और "बहुरुपिया" जैसे विरल विषयों पर लिखना आसान नहीं,निश्चय ही कवि की सूक्ष्म दृष्टि सराहनीय है।

कुल मिलाकर विविध विषयों पर सराहनीय शब्द रचना लिये रवींद्र जी की पुस्तक साहित्य प्रेमियों और समाज के लिए अमूल्य उपहार हैं।
कृपया आप भी अवश्य इन सारगर्भित कविताओं का आस्वादन करें।

  

यह ई-बुक ऑनलाइन गाथा के उपलब्ध कराये बुक स्टोर्स पर आसानी से खरीदा जा सकता है। 
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-----श्वेता

Wednesday 24 January 2018

गणतंत्र यानि...


चलो फिर से देशभक्ति की रस्म़ अदा करते है
जश्न एक दिन की छुट्टी का जैसे सदा करते है

देशभक्ति के गाने सुने झंडा फ़हरते देखे लाइव
वाट्सएप पर तिरंगे चुनकर सब जमा करते है

गणतंत्र और स्वतंत्र  का मतलब समझते नहीं
जो दिला दिला दे मुनाफ़ा उसे ही ख़ुदा करते है

अपशब्द नेता,अभिनेता को कहकर ठहाके लगा
अधिकार और कर्तव्यों पर गर्व हर जगह करते हैं

विविधतापूर्ण संस्कृति से समृद्ध हमारे देश में अनेक त्योहार मनाये जाते हैं। बहुरंगी छवि वाले हमारे देश के राष्ट्रीय त्योहार ही हैं, जो जनमानस की एकता का संदेश प्रसारित करते हैं।
गणतंत्र का मतलब एक ऐसी प्रणाली जो आम जन के सहयोग से विकसित हो।

"गणतंत्र यानि एक ऐसा शासन जिसमें  निरंकुशता का अंत करके आम जनमानस के सहमति और सहयोग से जनता के सर्वांगीण विकास के लिए शासन स्थापित किया गया।"
"गणतंत्र मतलब हमारा संविधान,हमारी सरकार हमारे अधिकार और हमारे कर्तव्य"

संविधान २६जनवरी १९५० मे लागू हुआ वो लिखित दस्तावेज़ है जिसमें हर एक आम और ख़ास के अधिकार और कर्तव्य अंकित है।

साल दर बीत रहे और एक गणतंत्र दिवस के जश्न का दिन आ गया। झंडे फहराकर ,देशभक्ति गीत सुनकर नारे लगाकर मना लेंगे हर बार की तरह।  अब तो सोशल मीडिया पर देशभक्ति का ख़ुमार सबसे ज्यादा छाया रहता हैं। आपने dp नहीं चेंज की स्टेटस नहीं अपडेट किया तो क्या ख़ाक देशभक्त है आप।
ये सब करने वाली एक बड़ी जनसंख्या की अनोखी ख़ूबी ये है कि इनमें  कितने ही लोगों को स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस का मतलब तक नहीं पता यहाँ तक हमारे  तथाकथित अगुआ जनप्रतिनिधि भी अनभिज्ञ है।बार-बार बेचारे कन्फ्यूजन में गणतंत्र की जगह स्वतंत्रता दिवस कह जाते हैं।बच्चों को भी यही लगता है कि दोनों त्योहार गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस एक ही है। बच्चों को उनकी उम्र और छोटी बुद्धि का हवाला देकर झंड़ा फहराना ही प्रमुख है यही बताया जाता है जाने क्यों हम कोशिश भी नहीं करते सही अर्थ समझाने की।

छुट्टी को जमकर मनाने की प्लानिंग पहले ही हो जाती है अगर वीक एंड है तो और अच्छा एक आध दिन की छुट्टी और लेकर कहीं बाहर रिलैक्स हो जाना सबसे शानदार आइडिया होता है। ड्राय-डे होने से ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता है,जिनको जरुरत वो ब्लैक में लेकर जश्न मनायेगें।

इन ख़ुशियों में और एक गणतंत्र दिवस बीत जायेगा फिर से। क्या कभी ऐसा भी दिन आयेगा जब हम देश की ख़ातिर, असहाय ,भूख और लाचारी से लड़ते किसी नागरिक के लिए कुछ सार्थक मदद कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने की कोशिश करें।  हमारे द्वारा हमारे लिए बनाया गया संविधान तब सही मायने में फलीभूत होगा जब हम सिर्फ अपने अधिकार की बात न करके अपने कर्तव्यों के बारे में भी सोचे।

   ---- श्वेता

Saturday 20 January 2018

बसंत


भाँति-भाँति के फूल खिले हैं रंग-बिरंगी लगी फुलवारी।
लाल,गुलाबी,हरी-बसंती महकी बगिया गुल रतनारी।।

स्वर्ण मुकुट सुरभित वन उपवन रंगों की फूटे पिचकारी।
ओढ़़ के मुख पर पीली चुनरी इतराये सरसों की क्यारी।।

आम्र बौर महुआ की गंध से कोयलिया कूहके मतवारी।
मधुरस पीकर मधुकर झूमे मधुस्वर गुनगुन राग मनहारी।।

रश्मिपुंजों के मृदु चुंबन पर शरमायी कली पलक उघारी।
सरस सहज मनमुदित करे बाल-विहंगों की  किलकारी।।

ऋतुओं जैसे जीवन पथ पर सुख-दुख की है साझेदारी।
भूल के पतझड़ बांह पसारो अब बसंत की है तैय्यारी।।


Wednesday 17 January 2018

बवाल



खुल के कह दी बात दिल की तो बवाल
लिख दिये जो ख़्वाब दिल के तो बवाल
इधर-उधर से ढ़ूँढते हो रोज़ क़िस्से इश्क़ के
हमने लफ़्ज़ों में बयां की मोहब्बत तो बवाल

देखकर आँखें झुका ली अदब से तो बवा
नज़रें मिलाई और हँस के चल दी तो बवाल
भावों से वो खेलते है फ़र्क़ क्या किसी दर्द का
हमने आईना दिखाया हो गया फिर तो बवाल

स्याही ख़ून में डुबोकर लिख दिया तो बवाल
कभी माटी कभी मौसम के रंग दिया तो बवाल
न ख़बर मैं क्या हूँ, वो कहे मेरे लिए अख़बार में
हमने चुप्पी साध ली हर बात पर तो है बवाल

ज़िंदगी की दौड़ में तुम रूको न चलो तो बवाल
मन मुताबिक पल जो चाहा न मिले तो बवाल
वो सजाये महफिलें और कहकहे हों बे-तुकें
हमने बस था मुस्कुराया एक जरा तो बवाल

      #श्वेता🍁

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...