Tuesday, 24 March 2020

इंसानियत की बलि



आदिम पठारों,
के आँचल में फैले
बीहड़ हरीतिमा में छिपे,
छुट्टा घूमते
जंगली जानवरों की तरह
खूँखार,दुर्दांत ..
क्या सच्चा साम्यवादी औजार
सहज सुलभ उपलब्ध,अचूक
तस्करी की जा रही बंदूक है?
एक झटके में बारुद की गंध
हवाओं मे घुलकर 
महुआ से भी ज्यादा
खुमारी भर जाती होगी शायद?
जिसके नशे में झूमता
ख़ुद को
मार्क्स और लेनिन
के विचारों का वाहक
जताने वाला
ज्वाला,बारुद और रक्त गंध का
व्यसनी हो उठता है,

जंगल के काले चट्टानों पर
लाल रंग से लिखी 
पूँजीपतियों के विरुद्ध इबारतें
ठठाकर हँस पड़ती हैं
जब रात के अंधेरो़ में
रसूख़दारों के द्वारा
फेंकीं गयी हड्डियाँ चूसकर
डकारता है, 
विदेशी बोतलों
से बुझाकर प्यास,
नाबालिग आदिवासी बालाओं
पर करता है मनमाना अत्याचार,

कंधे पर लटकाये
क्रांति का वाहक
उंगलियों पर नचाता
पीला कारतूस 
दिशाहीन विचारों को
हथियारों के नोंक से 
सँवारने का प्रयास, 
ये रक्तपिपासु 
मानवता के रक्षक हैं?
जिनके बिछाये खूनी जाल में
उलझकर,चीथड़े हो जाते हैं 
निर्दोष सिपाहियों के 
धड़कते देह
अतड़ियाँ,चेहरे,हड्डियाँ
निर्जीव होकर
काननों की वीरान
पगडंडियों की माटी
को लाल कर देती है
विधवाओं के चीत्कार,
मासूम बच्चों की रूदन पर 
विजय अट्टहास करते
निर्दयी,
किस अधिकार की चाह लिए
इंसानियत की बलि 
चढ़ाते है?
धरती से उठते धुँयें और
चमकती धूप में उलझी दृष्टि
किसी मरीचिका की तरह
अबूझ पहेली-सी...
 सुलगती गूँज पर
सहमा हुआ वर्तमान,
सुखद भविष्य के लिये
ख़ाकी रक्त से लिखे पंचाग 
किसके लिये शुभ फलदायक 
हो सकते हैं?

#श्वेता सिन्हा
२४मार्च२०२०

Tuesday, 17 March 2020

महामारी से महायुद्ध


काल के धारदार
नाखून में अटके
मानवता के मृत,
सड़े हुये,
अवशेष से उत्पन्न
परजीवी विषाणु,
सबसे कमजोर शिकार की
टोह में दम साधकर 
प्रतीक्षा करते हैं
भविष्य के अंंधेरों में
छुपकर।

मनुष्यों के स्वार्थी
तीरों से विदीर्ण हुई
कराहती 
प्रकृति के अभिशाप से
जर्जर हुये कंगूरों पर
रेंगती लताओं से
चिपटकर चुपचाप 
परजीवी चूसते हैं
बूँद-बूँद
जीवनी शिराओं का रस
कृश तन,भयभीत मन को
शक्तिशाली होने का भ्रम दिखा 
संक्रमित कर सभ्यताओं को
गुलाम बनाकर 
राज करना चाहते हैं
संपूर्ण पृथ्वी पर।

धैर्य एवं सकारात्मकता के
कालजयी अस्त्रों
से सुशोभित 
सजग,निडर योद्धा
काल के परिस्थितिजन्य 
विषधर परजीवियों 
के साथ हुये
महाविनाशकारी
महायुद्ध में
मृत्यु के तुमुलनाद से
उद्वेलित,
काल-कलवित होते
मानवों की संख्यात्मक वृद्धि से
विचलित,
किंतु दृढ़प्रतिज्ञ,
संक्रमित नुकीले
महामारी के
विषदंतों को 
समूल नष्ट करने के लिए
अनुसंधानरत,
अतिशीघ्र
मिटाकर अस्तित्व
विषैले परजीवियों का,
विजय रण-भेरी फूँककर
आशान्वित
संपूर्ण विश्व को
चिंतामुक्त कर
आह्लादित करने को
कटिबद्ध हैं।

#श्वेता सिन्हा
१७/०३/२०२० 


Sunday, 8 March 2020

लालसा


रंगीन,श्वेत-स्याह
तस्वीरों में 
जीवन की
उपलब्लियों की 
छोटी-बड़ी
अनगिनत गाथाओं में
उत्साह से लबरेज़
आत्मविश्वास के साथ
मुस्कुराती 
बेपरवाह स्त्रियाँ,
समाज की आँखों में 
स्वयं के लिए
समानता और सम्मान 
का प्रतिबिंब
देखने की जिद में,
पगहा तोड़कर,
रचती है नयी कहानियाँ,
अपने अस्तित्व का खूँटा
गाड़ आती है
आसमान की
छाती पर।
 पर फिर भी,
अपने हृदय के एकांत में
सर्वाधिकार सौंपकर
होना चाहती है
निश्चिंत
मन के सबसे महीन
भावों के 
रेशमी लच्छियों का
एक सिरा थामे
उलझती जाती है...,
मुँह जोहती हैं,
आजीवन स्वेच्छा से
समझौता करती हैं,
अपने प्रिय पुरुष के
सानिध्य में अपने लिए
प्रेम का शाश्वत स्पंदन
महसूस करने की
लालसा में।

#श्वेता
८/०३/२०२०


Tuesday, 3 March 2020

उम्र


उम्र के पेड़ से
निःशब्द
टूटती पत्तियों की
सरहराहट,
शिथिल पलों में
सुनाई पड़ती है,
मौन एकांत में
समय की खुली
संदूकची से निकली
सूखी स्मृतियों की
कच्ची गंध 
अनायास
हरी हो जाती है

ख़्वाबों की
मोटी किताब में
धुंधली पड़ती
नींद की स्याही से,
जीवन के बही-खातों का
हिसाब लिख,
उम्र सारे कर्ज़
 सूद समेत
 दोहराती है।

सूर्योदय से सूर्यास्त तक
अनदेखे पलों की
रहस्यमयी नक्काशी को
टटोलने की उत्सुकता में,
उम्र ढोती है पीठपर,
चाहे-अनचाहे,
जीवन के बेढ़ब
घट का भार,
साँसों के थककर
समय के समुंदर की
गुमनाम
लहर बन जाने तक।

बँधे गट्ठर से जीवन के
एक-एक कर फिसलती
उम्र की लुआठी
 बची लकड़ियाँ 
कौन जाने किस पल
काल की घाटी में
राख बन उड़ जायेंगी!!!

#श्वेता सिन्हा


Sunday, 23 February 2020

विरहिणी/वसंत


सूनी रात के अंतिम प्रहर
एक-एककर झरते
वृक्षों से विलग होकर
गली में बिछे,
सूखे पत्रों को
सहलाती पुरवाई ने
उदास ड्योढ़ी को
स्नेह से चूमा,
मधुर स्मृतियों की
साँकल खड़कने से चिंहुकी,
कोयल की  पुकार से उठी 
मन की हूक को दबाये
डबडबाई पलकें पोंछती 
पतझड़ से जीवन में 'वह'
वसंत की आहट सुनती है।

हवाओं में घुली
नवयौवना पुष्पों की गंध,
खिलखिलाई धूप से
दालान के बाहर 
ताबंई हुई वनचम्पा
जंगली घास से भरी
 क्यारियों में
 बेतरतीब से खिले
डालिया और गेंदा
 को रिझाते
अपनी धुन में मगन
भँवरों की नटखट टोलियाँ,
मुंडेर पर गूँटर-गूँ करते
भूरे-सफेद कबूतर
फुदकती बुलबुल
नन्हें केसरी बूटों
की फुलकारी से शोभित 
नागफनी की कंटीली बाड़ से
उलझे दुपट्टे उंगली थामे
स्मृतियों का वसंत 
जीवंत कर जाते हैं।

विरह की उष्मा  
पिघलाती है बर्फ़
पलकों से बूँद-बूँद
टपकती है वेदना 
भिंगाती है धरती की कोख 
सोये बीज सींचे जाते हैं,
फूटती है प्रकृति के
अंग-प्रत्यंग से सुषमा,
अनहद राग-रागिनियाँ...,
यूँ ही नहीं 
ओढ़ते हैं निर्जन वन
सुर्ख़ ढाक की ओढ़नी,
मौसम की निर्ममता से
ठूँठ हुयी प्रकृति का 
यूँ ही नहीं होता 
नख-शिख श्रृंगार,
प्रेम की प्रतीक्षा में 
चिर विरहिणियों के
अधीर हो कपसने से,
अकुलाई,पवित्र प्रार्थनाओं से
अँखुआता है वसंत

#श्वेता सिन्हा
२३/०२/२०२०



Sunday, 16 February 2020

मधुमास


बर्फीली ठंड,कुहरे से जर्जर,
ओदायी, 
शीत की निष्ठुरता से उदास,
पल-पल सिहरती
आखिरी साँस लेती
पीली पात
मधुमास की प्रतीक्षा में,
बसंती हवा की पहली 
पगलाई छुअन से तृप्त
शाख़ से लचककर 
सहजता से
विलग हो जाती है। 

ठूँठ पर 
ठहरी नरम ओस की 
अंतिम बूँद को 
पीने के बाद
मतायी हवाओं के
स्नेहिल स्पर्श से
फूटती नाजुक मंजरियाँ, 
वनवीथियों में भटकते
महुये की गंध से उन्मत
भँवरें फुसफुसाते हैं
मधुमास की बाट जोहती,
बाग के परिमल पुष्पों 
के पराग में भीगी,
रस चूसती,
तितलियों के कानों में।

बादलों के गाँव में
होने लगी सुगबुगाहट
सूरज ने ली अंगड़ाई,
फगुनहट के नेह ताप से
आरक्त टेसु,
कूहू की पुकार से
व्याकुल,
सुकुमार सरसों की
फूटती कलियों पर मुग्ध
खिलखिलाई चटकीली धूप।

मधुमास शिराओं में 
महसूस करती
दिगंबर प्रकृति
नरम,स्निग्ध,
मूँगिया ओढ़नी पहनकर
लजाती,इतराती है।

#श्वेता सिन्हा
१६/०२/२०२०

Sunday, 9 February 2020

पदचाप



चित्र:साभार सुबोध सर की वॉल से
-------
सरल अनुभूति के जटिल अर्थ,
भाव खदबदाहट, झुलसाते भाप।
जग के मायावी वीथियों में गूँजित
चीन्हे-अनचीन्हे असंख्य पदचाप।

तम की गहनता पर खिलखिलाते,
तप तारों का,भोर के लिए मंत्रजाप।
मूक परिवर्तन अविराम,क्षण-प्रतिक्षण, 
गतिमान काल का निस्पृह पदचाप

ज्ञान-अज्ञान,जड़-चेतन के गूढ़ प्रश्न,
ब्रह्मांड में स्पंदित नैसर्गिक आलाप।
निर्माण के संग विनाश का शाप,
जीवन लाती है मृत्यु की पदचाप।

सृष्टि के कण-कण की चित्रकारी,
धरा-प्रकृति , ब्रह्म जीव की छाप।
हे कवि!तुम प्रतीक हो उजास की,
लिखो निराशा में आशा की पदचाप।

#श्वेता सिन्हा
०९/०२/२०२०

Monday, 13 January 2020

कैसे जीवन जीना हो?


नैनों में भर खारे मोती 
विष के प्याले पीना हो,
आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो..?

मन के चाहों को छू-छूकर
चिता लहकती धू-धूकर
भावों की राख में लिपटा मन
कैसे चंदन-सा भीना हो?

आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो..?

भोर सिसकती धुंध भरी
दिन की आरी भी कुंद पड़ी
गीली सँझा के आँगन में
कैसे रातें पशमीना हो?

आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो...?

जर्जर देह के आवरण के
शिथिल हिया के आचरण के
अवशेष बचे हैं झँझरी कुछ
कैसे अंतर्मन सीना हो...?

आशाओं के दीप बुझा के
कैसे जीवन जीना हो...?

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...