Thursday, 24 February 2022

युद्ध...


युद्ध की बेचैन करती
तस्वीरों को साझा करते
न्यूज चैनल,
समाचारों को पढ़ते हुए
उत्तेजना से भरे हुए
 सूत्रधार
 शांति-अशांति की 
 भविष्यवाणी,
समझौता के अटकलों
और सरगर्मियों से भरी बैठकें
विशेषज्ञों के कयास
उजड़ी आबादी 
बारूद,बम,टैंकरों, हेलीकॉप्टरों की
गगन भेदी गड़गड़ाहटों वाले
वीडियो,रक्तरंजित देह,बौखलायी 
बेबस भीड़,रोते-बिलखते बच्चे 
किसी चित्रपट की रोमांचक
तस्वीरें नहीं
महज एक अशांति का
समाचार नहीं
तानाशाह की निरंकुशता, 
विनाश के समक्ष दर्शक बने
बाहुबलियों की नपुंसकता,
यह विश्व के 
नन्हे से हिस्से में उठती
चूल्हे की चिंगारी नही 
आधिपत्य स्थापित 
करने की ज़िद में
धरती की कोख को
बारूद से भरकर
पीढ़ियों को बंजर करने की
विस्फोटक भूमिका है।


आज जब फिर से...
स्वार्थ की गाड़ी में 
जोते जा रहे सैनिक...
अनायास ही बदलने लगा मौसम
माँ की आँखों से
बहने लगे खून,
प्रेमिकाएँ असमय बुढ़ा गयी
खिलखिलाते,खेलते बच्चे 
भय से चीखना भूल गये,
फूल टूटकर छितरा गये
तितलियाँ घात से गिर पड़ीं
आसमान और धरती 
धुआँ-धुआँ हो गये,
उजड़ी बस्तियों की तस्वीरों के
भीतर मरती सभ्यता 
इतिहास में दर्ज़ 
शांति के सभी संदेशों को
झुठला रही है..
कल्पनातीत पीड़ा से
 भावनाशून्य मनुष्य की आँखें
चौंधिया गयी हैं
 जीवन के सारे रंग 
 लील लेता है 
 युद्ध...। 

-श्वेता सिन्हा
२४ फरवरी २०२२


Sunday, 13 February 2022

प्रेम.....



बनते-बिगड़ते,ठिठकते-बहकते
तुम्हारे मन के अनेक अस्थिर,
जटिल भाव के बीच सबसे कोमल
स्थायी एहसास बनकर निरंतर 
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ मैं...

पवित्र नदी,कुएँ या झील में
तुम्हारे द्वारा उछाले गये
प्रार्थनाओं का सिक्का बनकर
 डूब जाना चाहती हूँ मैं
प्रेम के गहरे समुंदर में,
किसी मंदिर में जोड़ी गयी हथेलियों 
के मध्य,बंद पलकों की झिर्रियों
से झाँकना चाहती हूँ मैं,
दीये की लौ की तरह
तुम्हारे पथ में
जलना चाहती हूँ मैं,
रूनझुनी घंटियों की स्वरलहरी सी
 गूँजना चाहती हूँ मैं
तुम्हारे अंर्तमन में...
किसी दरगाह,मज़ार पर,
किसी पावन वृक्ष के ईर्दगिर्द 
मन्नत का पवित्र धागा बनकर
लिपटना चाहती हूँ
तुम्हारे मन की अंतिम इच्छा बनकर।

फूलों पर मचलती तितली देखते हुए
बारिश के झोंकों के साथ,
हवाओं की अठखेलियों के साथ,
नीरस शाम की चाय के साथ,
शाम ढले सबसे चमकीला तारा ढूँढ़ते हुए,
जुगनू को मुग्ध निहारते हुए,
तुम्हारे लैपटॉप की स्क्रीन पर,
फाइलों के जरूरी कागज़ों के बीच
अनायास ही मिल गयी
किसी विशेष स्मृति चिह्न की तरह
छू जाना चाहती हूँ तुम्हारे होंठों को
बनकर मीठी-सी मुस्कान,
किसी इत्र की खुशबू की तरह
करना चाहती हूँ तुम्हें भाव विभोर।

सुनो न...
मैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,
होंठों से उच्चरित मंत्र की तरह
तुम्हारे द्वारा पढ़ी या लिखी गयी
 कहानी,कविताओं, प्रेम पत्रों की
 एकमात्र नायिका बनकर...।

 -------
 -श्वेता सिन्हा
 १३ फरवरी २०२२

Thursday, 10 February 2022

एकमात्र विकल्प


रश्मि पुंज निस्तेज है
 मुखौटों का तेज है
 सुन सको तो सुनो
 चेहरा पढ़ने में असमर्थ
 आँखों का मूक आर्तनाद।


झुलस रही है तिथियाँ
श्रद्धांजलि  रीतियाँ
भीड़ की आड़ में
समय की लकीरों पर
जूतों के निशान है।


विलाप की विवेचना
शव होती संवेदना
अस्थिपंजर से चिपकी
अस्थियों का मौन
साँसों पर प्रश्न चिह्न है।


धूल-धूसरित,मलबे 
छितराये हुए अवशेष 
विघटन की प्रक्रिया में
हर खंडहर हड़प्पा नहीं 
जीवित मनुष्यों का उत्खनन है।

अफ़रा तफ़री उत्सवी
मृत्यु शोक मज़हबी 
निरपेक्ष राष्ट्र की
प्राणरक्षा के लिए
संप्रदायों का आत्महत्या करना 
एकमात्र विकल्प है।


-श्वेता सिन्हा
१०फरवरी२०२२


 

Tuesday, 25 January 2022

भविष्य के बच्चे


1949 में जन्मे बच्चों की
गीली स्मृतियों में उकेरे गये
कच्ची मिट्टी, चाभी वाले,
डोरी वाले कुछ मनोरंजक खिलौने,
फूल,पेड,तितलियाँ,
चिडियों,घोंसले,परियाँ,
सूरज को दादा
और चाँद को मामा कहने वाली
मासूम कविताएँ
स्कूल,चौराहे, गली-कूचों में
शान से फहरते तिरंगे और
स्वतंत्रता के लिए बलिदान हुए
 शौर्यवीरों की
गौरवशाली भावपूर्ण 
कहानियाँ बोयी गयी थी।
सौहार्दपूर्ण वातावरण में
जाति-धर्म से परे
आँख में भरे गये थे
मनुष्यता की गुणवत्ता वाले
राष्ट्रहित सर्वोपरि का मंत्र जापते
सुखी,संपन्न आह्लाद से लबालब
मूल्यवान भविष्य के स्वप्न...।

धीरे-धीरे बचपन से
कच्ची मिट्टी सूख गयी
चाभी की जगह
बैटरी वाली कार,
खतरनाक बंदूकों ने ले लिए,
चिडियों,तितलियों,फूल और
पेडों को तस्वीरों में कैद कर 
चाँद और सूरज की
रोशनी में लटकाकर
कविताओं से निकालकर
वैज्ञानिक परीक्षण के लिए
भेज दिया गया,
आज़ादी का महत्व,
बलिदानों की कहानियाँ
और बलिदानियों का
आलोचनात्मक विश्लेषण,
महत्वपूर्ण दिवस और तिथियाँ
सामान्य ज्ञान की किताबों तक
सीमित होना ,झंडोत्तोलन का
छुट्टी का एक दिन की तरह
औपचारिक हो जाना
चिंताजनक है।

किंतु
सोचती हूँ...
स्वकेंद्रित जीवन 
स्वनिर्माण सर्वोपरि का
जन्मघुट्टी पीते बचपने के ढेर से अलग
कुछ बच्चों का
चीजों को यथावत स्वीकार न करना,
विषयों का तार्किक आकलन करना
आविष्कारक पीढ़ी का
पेंसिल की नोंक रगड़कर
दुनिया के नक्शे पर लिखना
ग्लोबल गाँव,
जाति-धर्म को ख़ारिज करना,
 सामाजिक आडंबरों  
पर व्यवहारिक प्रश्न पूछना
मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील होना
छब्बीस जनवरी के परेड का
लाइव टेलीकास्ट देखते हुए
राष्ट्र गीत गुनगुनाते हुए,सलामी देते हुए कहना
"मैं भी सैनिक बनना चाहता हूँ"
भविष्य के बदलाव का शुभ संकेत हैं
देश के लिए सम्मान पनपना
भावनाओं का जन्मना...,
कोई फर्क नहीं पड़ता कि
खुरदरी दरी या आरामदायक बिस्तर है
आँखों के सपने कंम्प्यूटराइज़्ड ही सही
पर अपने देश का तिरंगा लिए
हँसते-मुस्कुराते 2022 के बच्चे
उम्मीद की संजीवनी बूटी से लगते हैं
जो विश्वास दिलाते है कि  
एक दिन अवश्य करेंगे
व्याधि मुक्त राष्ट्र का निर्माण।

#श्वेता सिन्हा
२५ जनवरी २०२२

Wednesday, 19 January 2022

बेचैनियाँ

हर अभिव्यक्ति के बाद
बची हुई अभिव्यक्ति में
भावों की गहराई में छुपी
अव्यक्तता की अनुभूति
सदैव जताती है
अभिव्यक्ति के
अधूरेपन के समुच्चय को
अपूर्ण शब्दों के समास को
जिन्हें पूर्ण करने की चेष्टा में
अक्सर ख़ाली पन्ने पर
फडफड़़ाती हैं बेचैनियाँ...।

बेचैनियों को 
छुपाने के लिए
कविताओं का आसामान चुना
सोचती रही
शब्दों से नज़दीकियाँ बढ़ाकर
फैलाकर अपने भावों के पंख 
सुकून पा रही हूँ...
पर जाने क्यों
उम्र के साथ
बढ़ती ही जा रही हैं
बेचैनियाँ।

पसीजे मन की धुन पर
चटखती उंगलियाँ,
कल्पनाओं के
स्क्रीन ऑन-ऑफ
स्क्रॉल करती..., 
एक मनचाहा
संदेश देखने के लिए
विकल आँखें,
नींद का स्वांग भरती
करवटें,
कोलाहलों से तटस्थ
बस एक परिचित आहट 
टोहते कान,
सचमुच...
भीतर ही भीतर
भावनाओं के
अनगिनत बूँदों को
कितने धैर्य से समेटी 
हुई होती है न
ये बेचैनियाँ ।

#श्वेता सिन्हा
१९ जनवरी २०२२



 

Wednesday, 12 January 2022

आह्वान.. युवा


गर जीना है स्वाभिमान से
मनोबल अपना विशाल करो
न मौन धरो ओ तेजपुंज
अब गरज उठो हुंकार भरो।

बाधाओं से घबराना कैसा?
बिन लड़े ही मर जाना कैसा?
तुम मोम नहीं फौलाद बनो
जो भस्म करे वो आग बनो
अपने अधिकारों की रक्षा का
उद्धोष करो प्रतिकार करो।

विचार नभ पर कल्पनाओं के
इंद्रधनुष टाँकना ही पर्याप्त नहीं,
सत्ता,संपदा,धर्म-जाति अस्वीकारो
मानवीय मूल्य सर्वव्याप्त करो।

माना कि बेड़ी में जकड़े हो
तुम नीति-नियम को पकड़े हो,
तुम्हें पत्थर में दूब जमाना है
बंजर में हरियाली लाना है,
आँखें खोलो अब जागो तुम
सब देखे स्वप्न साकार करो।

तुम रचयिता स्वस्थ समाज के
खोलो पिंजरे, परवाज़ दो,
दावानल बनो न विनाश करो
बन दीप जलो और तमस हरो।

आवाहन का तुम गान बनो
बाजू में प्रचंड तूफान भरो
हे युवा
! हो तुम कर्मवीर
तरकश में कस लो शौर्य धीर
अब लक्ष्य भेदना ही होगा
योद्धा हो आर या पार करो

-श्वेता सिन्हा
१२ जनवरी २०२२


Wednesday, 5 January 2022

प्रेम के रंग


प्रेम कहानियाँ पढ़ते हुए
वह स्वयं ही 
कहानियों का 
एक पात्र बन जाती है
क्योंकि 
प्रेम की अलौकिक अनुभूतियां 
महसूसना पसंद है उसे

मन के समुंदर पर 
नमक की स्याही से
लिखकर प्रेम 
सीपियों में बंदकर
भावनाओं की लहरों के बीच
छोड़ देती अक्सर 
और हो जाती है
स्वतंत्र
बहने के लिए

प्रेम पात्रों के 
भावुक अभिनय में भीगी वह
सोचने लगती है
राम जैसा कोई 
मायावी हिरण के पीछे भागेगा
सिर्फ़ उसके हठ के लिए  
फिर उसके वियोग में
आँसुओं की नदी में तैरता हुआ
संसार के हर रावण से बचाकर
अपने हृदय के सिंहासन में
पुनः स्थापित करेगा
 
वह यह भी 
कल्पना करती कि कोई 
शिव की तरह
सिर्फ उसी से करेगा प्रेम
और मुझे 
स्थापित कर देगा 
पार्वती की तरह

प्रेम कहानियों की
मदमस्त कल्पनाओं में डूबी
हवाओं से बात करती है
पक्षियों के साथ उड़ती है
मौसम को डाकिया बनाकर
भेजती है
प्रेम की महकती चिट्ठियाँ 

अपने सुखद सपनों की
चकाचौंध में
वह भूल जाती है
दुष्यंत के प्रेम में भटकती
गर्भिणी शंकुतला की पीड़ा
दाँव पर लगी
भरी सभा में अपमान झेलती
द्रौपदी की व्यथा

वह यह भी भूल जाती है
कि,प्रेम की परिभाषा में बंधी
राधा,मीरा ,यशोधरा 
और उर्मिला
अपनी उपस्थिति का 
अहसास तो कराती रहीं
पर उपेक्षिति ही रही
 
प्रेम कहानियों के 
सभी रेखांकित पात्रों का 
जीवंत अभिनय करके भी 
जाने क्यों
वह अधूरी ही रही
नहीं मिला उसे 
मनचाहे पुरूष में
मनचाहा प्रेमी
शायद वह समझ नहीं पायी
कि,वास्तविकता में
प्रेम कहानियों के रंगीन चित्रों में लिपटे पात्रों को
छू लेने की जिद से
उत्पन्न इच्छाएं
भाप बनकर उड़ जाती हैं
और 
बदरंग होने लगते हैं
प्रेम के रंग

#श्वेता सिन्हा



Sunday, 19 December 2021

बदलाव का ढोंग


अंधपरंपराओं पर लिखी गयी
प्रसिद्ध पुस्तकें,
घिसी-पिटी रीति-रिवाज़ों पर आधारित
दैनंदिन जीवन के आडंबर पर
प्रस्तुत  शोधपत्र
लेख,कहानियां, कविताओं में
चित्रित मर्मस्पर्शी उद्धरण
इन्हीं सराहनीय कर्मों के अनुसार
राष्ट्रीय,अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
विश्व पटल पर पुरस्कृत,
 सम्मानित किये जाते 
लेखक,शोधार्थी, समाजसेवी,पर्यावरणविद
और भी न जाने कौन-कौन...।

हाशिये पर पड़े 
उपेक्षितों को 
अंधविश्वास से मुक्त कर
स्वस्थ वातावरण प्रदान करने की 
मुहिम में जुटे हुए अनगिनत लोग
संकरी,दुरूह
पगडंडियों से उतरकर 
खोह में बसे
जड़ों को जकड़े अंधविश्वास के कीड़़े को
विश्वास के चिमटे से खींचकर
निकालने का उपक्रम करते हैं...।

कुछ इने-गिने बागवां
सच्चे प्रयासों की खुरपी लिए
आजीवन खोदते हैं पाताल में गुम 
कुरीतियों की जड़़ों को,
करते रहते हैं 
वैचारिकी खर-पतवार 
निकालने का यत्न,
किंतु अधिकतर 
संघर्षों की पाटी के मध्य 
पिसते, जूझते लोगों को छूकर देखते है
उनके दुख पर
संवेदना प्रकटकर
मार्मिक संस्मरणों की 
पोटली बटोरकर
पर्याप्त संसाधन जुटाने का दिलासा देकर
वापस शहर की ओर लौट जाते हैं...।
 
अंधपरंपराओं की कोठरी की
झिर्रियों से रिसता ज़हरीला धुँआ
निडर,बेखौफ़ निगलता रहता है 
अपना कमज़ोर शिकार चुपचाप
अनवरत...,
और.... 
प्रतिष्ठित सभागारों में 
कुरीतियों के लिए संघर्षरत योद्धा और 
उनकी पुस्तकें सम्मानित होती हैं, 
अंधविश्वासों को ऊपर से झाड़-पोंछकर
पहना दिया जाता है
कलफ लगा लबादा
कुछ महत्वपूर्ण तिथियों को
जुलूस,धरना,प्रदर्शन में
आक्रोश के उबलते भावुक शब्दचित्रों का 
जीवंत रूपांतरण  किया जाता है
भावनाओं की लहरों में डुबकी लगा-लगाकर
उन्हीं पुराने वाक्यांशों से
नये उद्धोष किये जाते हैं
अंधपरंपराओं को
नारों से बदलने का
संकल्प लेकर।

#श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...