जग सरवर स्नेह की बूँदें
भर अंजुरी कैसे पी पाती
बिन " पापा " पीयूष घट आप
सरित लहर में खोती जाती
प्लावित तट पर बिना पात्र के
मैं प्यासी रह जाती!
निडर पंख फैलाकर उड़ती
नभ के विस्तृत आँगन में
टाँक आती मैं स्वप्न सुमन को
जीवन के फैले कानन में
आपकी शीतल छाँह बिना
मैं झुलस-झुलस मर जाती!
हरियाली जीवन की मेरे
झर-झर झरते निर्झर आप
तिमिर पंथ में दीप जलाते
सुनती पापा की पदचाप
बिना आपकी उंगली थामे
पथ भ्रांत पथिक बन जाती!
समयचक्र पर आपकी बातें,
स्मृतियाँ विह्वल कर जाती है
काँपती जीवन डोर खींच
प्रत्यंचा मृत्यु चढ़ाती है
संबल,साहस,संघर्ष का ज्ञान
आपकी सीख, मैं कभी भूल न पाती
मैं कभी भूल न पाती
--श्वेता सिन्हा
भर अंजुरी कैसे पी पाती
बिन " पापा " पीयूष घट आप
सरित लहर में खोती जाती
प्लावित तट पर बिना पात्र के
मैं प्यासी रह जाती!
निडर पंख फैलाकर उड़ती
नभ के विस्तृत आँगन में
टाँक आती मैं स्वप्न सुमन को
जीवन के फैले कानन में
आपकी शीतल छाँह बिना
मैं झुलस-झुलस मर जाती!
हरियाली जीवन की मेरे
झर-झर झरते निर्झर आप
तिमिर पंथ में दीप जलाते
सुनती पापा की पदचाप
बिना आपकी उंगली थामे
पथ भ्रांत पथिक बन जाती!
समयचक्र पर आपकी बातें,
स्मृतियाँ विह्वल कर जाती है
काँपती जीवन डोर खींच
प्रत्यंचा मृत्यु चढ़ाती है
संबल,साहस,संघर्ष का ज्ञान
आपकी सीख, मैं कभी भूल न पाती
मैं कभी भूल न पाती
--श्वेता सिन्हा
अति आभार दी:)
ReplyDeleteतहेदिल से शुक्रिया आपका बहुत सारा।
पिता के प्रति आपके शब्द दिल में उतर रहे हैं ...
ReplyDeleteमौन छाया से पिता सच में विस्तृत आकाश जैसे होते हैं जिसका अहसास सुकून और हिम्मत देता है ....
पितृदिवस पर सुन्दर अहसासों का सन्देश।
ReplyDeleteबस मन भर आया इस कविता को पढ़कर प्रिय श्वेता। मेरा स्नेह।
ReplyDeleteवाह!!श्वेता ,बहुत ही सुंंदर भावभरी रचना । दिल भर आया ....
ReplyDeleteवाह अद्भुत श्वेता जी ..
ReplyDelete🌺🌹👏👏👏👏👏👏👏👏
लगा जैसे मेरे मन भावों को अक्षरशः उकेर रही हो
अल्फाजों में ढाल ढाल कर मोती से रोल रही हो
भुला बिसरा सब याद आगया सखी तुमको में करूं नमन
पितृ भाव सरस रच दिया पढ़ पितृ गण भी होंगे मगन !
बहुत ही सुंदर अप्रतिम सौन्दर्य से भरे अभिभूत करते भाव श्वेता । ज्यों पिता को इस से अच्छी और कौन सी भाव पूर्ण सौगात होगी।
ReplyDeleteहृदय के गहरे उद्गार पिता को समर्पित आपकी सुंदर भावपूर्ण पंक्तियों पर मेरे कुछ समर्पित अल्फाज़...
देकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम है तरूवर
अब छांव कहां से पाऊं
देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हो नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं
देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हो नीलाकाश
अब प्राण वात कहां से पाऊं
देकर मुझको आधार महल
कहां गये हो धराधर
अब कदम कहां जमाऊं।
वाह वाह नायब रचना प्रिय श्वेता ..मानो मन मेरे को पढ़ रही शब्दों में भावों को गढ़ रही ...
ReplyDeleteतिमिर पथ मैं दीपक जैसे दप दप से जल जाते
आपकी उंगली थाम के ही हम कदम कदम चल पाते ...
हर पंक्ति प्यास लिये पिता नेह की आस लिये ....
लाजवाब प्रिय श्वेता
पिता का स्नेह व् उनकी शिक्षाएं अनमोल होती है ... भावपूर्ण कविता , मन द्रवित हो गया
ReplyDeleteपितृदिवस पर पिता को समर्पित बहुत ही सुन्दर लाजवाब प्रस्तुति....
ReplyDeleteहरियाली जीवन की मेरे
झर-झर झरते निर्झर आप
तिमिर पंथ में दीप जलाते
सुनती पापा की पदचाप
बिना आपकी उंगली थामे
पथ भ्रांत पथिक बन जाती!
वाह!!!!
बहुत ही खूबसूरत कविता
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (5 -8 -2020 ) को "एक दिन हम बेटियों के नाम" (चर्चा अंक-3784) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
पितृदिवस की शुभकामनाएं
ReplyDeleteपितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
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