Wednesday, 23 May 2018

जेठ की तपिश

चित्र:मनस्वी प्राजंल

त्रिलोकी के नेत्र खुले जब
अवनि अग्निकुंड बन जाती 
वृक्ष सिकुड़कर छाँह को तरसे
नभ कंटक किरणें बरसाती
बदरी बरखा को ललचाती  
जब जेठ की तपिश तपाती 

उमस से प्राण उबलता पल-पल
लू की लक-लक दिल लहकाती
मन के ठूँठ डालों पर झूमकर 
स्मृतियाँ विहृ्वल कर जाती 
पीड़ा दुपहरी कहराती 
जब जेठ की तपिश तपाती 

प्यासी  नदियां,निर्जन गुमसुम
घूँट-घूँँट जल आस लगाए
चिचियाए खग व्याकुल चीं-चीं
पवन झकोरे  आग लगाए
कलियाँ दिनभर में मुरझाती 
जब जेठ की तपिश तपाती 
  
   #श्वेता सिन्हा

Saturday, 19 May 2018

तुम जीवित हो माने कैसे?

चित्र-मनस्वी प्रांजल

लीपे चेहरों की भीड़ में
सच-झूठ पहचाने कैसे?
अनुबंध टूटते विश्वास की
मौन आहट जाने कैसे?

नब्ज संवेदना की टटोले
मोहरे बना कर मासूमियत को,
शह मात की बिसात में खेले
शकुनियों के रुप पहचाने कैसे?

खींचते है प्राण,अजगर बन
निष्प्राण अवचेतन करके
निगलते सशरीर धीरे-धीरे
फनहीन सर्पों को पहचाने कैसे?

सोच नहीं बदलता ज़माना 
कभी नारी के परिप्रेक्ष्य में
बदलते युग के गान में दबी
सिसकियों को पहचाने कैसे?

बैठे हो कान में उंगलियाँ डाले
नहीं सुनते हो चीखों को?
नहीं झकझोरती है संवेदनाएँ?
मृत नहीं तुम जीवित हो माने कैसे?


   --श्वेता सिन्हा


Wednesday, 16 May 2018

पेड़ बचाओ,जीवन बचाओ

हाँ,मैंने भी देखा है
चारकोल की सड़कें
फैल रही ही है
सुरम्य पेड़ों से आच्छादित
सर्पीली घाटियों में,
सभ्य हो रहे है हम
निर्वस्त्र,बेफ्रिक्र पठारों के
छातियों को फोड़कर समतल करते,
गाँवों की सँकरी
पगडंडियों को चौड़ा करने पर,
ट्रकों में भरकर
शहर उतरेगा ,
ढोकर ले जायेगा वापसी में
गाँव का मलबा,
हाँ ,मैंने महसूस किया है 
परिवर्तन की  
आने की ख़बर से
डरे-डरे और उदास 
खिलखिलाते पेड़
रात-रात भर रोते पठार और
बिलखते खेतों को,
जाने कौन सी सुबह
उनके क्षत-विक्षत अवशेष
बिखर कर मिल जायेे माटी में
हाँ,मैंने सुना है उन्हें कहते हुये
सभ्यता के विकास के लिए
उनकी मौन कुर्बानियाँ
मानव स्मृतियों में अंकित न रहे
पर प्रकृति कभी नहीं भूलेगी
उसका असमय काल कलवित होना
शहरीकरण के लिबास पहनती सड़कों पर
जब भर जायेगा
विकास को बनाने के बाद बचा हुआ 
ज़हरीला धुआँ
तब याद में मेरी
कंकरीट खेत के मेड़ों पर
लगाये जायेगे वन
"पेड़ लगाओ,जीवन बचाओ"
के नारे के साथ।

   ----श्वेता सिन्हा






Thursday, 10 May 2018

जफ़ा-ए-उल्फ़त

पूछो न बिना तुम्हारे कैसे सुबह से शाम हुई
पी-पीकर जाम यादों के ज़िंदगी नीलाम हुई

दर्द से लबरेज़ हुआ ज़र्रा-ज़र्रा दिल का
लड़खड़ाती हर साँस ख़ुमारी में बदनाम हुई

इंतज़ार, इज़हार, गुलाब, ख़्वाब, वफ़ा, नशा
तमाम कोशिशें सबको पाने की सरेआम हुई

क्या कहूँ वो दस्तूर-ए-वादा  निभा न सके 
वफ़ा के नाम पर रस्म-ए-मोहब्बत आम हुई

ना चाहा पर दिल ने तेरा दामन थाम लिया
तुझे भुला न सकी हर कोशिश नाकाम हुई

बुत-परस्ती की तोहमत ने बहुत दर्द दे दिया
जफ़ा-ए-उल्फ़त मेरी इबादत का इनाम हुई

    -श्वेता सिन्हा


Sunday, 6 May 2018

कहानी अधूरी,अनुभूति पूरी -प्रेम की


उम्र के बोझिल पड़ाव पर
जीवन की बैलगाड़ी पर सवार
मंथर गति से हिलती देह
बैलों के गलेे से बंधा टुन-टुन की
 आवाज़ में लटपटाया हुआ मन
अनायास ही एक शाम
चाँदनी से भीगे 
गुलाबी कमल सरीखी
नाजुक पंखुड़ियों-सी चकई को देख
हिय की उठी हिलोर में डूब गया
कुंवारे हृदय के
प्रथम प्रेम की अनुभूति से बौराया
पीठ पर सनसनाता एहसास बाँधे
देर तक सिहरता रहा तन
मासूम हृदय की हर साँस में 
प्रेम रस के मदभरे प्याले की घूँट भरता रहा
मताया 
पलकें झुकाये भावों के समुंदर में बहती चकई
चकवा के पवित्र सुगंध से विह्वल  
विवश मर्यादा की बेड़ी पहने
अनकहे शब्दों की तरंगों से आलोड़ित 
मन के कोटर के कंपकंपाते बक्से के
भीतर ही भीतर
गूलर की कलियों-सी प्रस्फुटित प्रेम पुष्प
छुपाती रही 
तन के स्फुरण से अबोध
दो प्यासे मन का अलौकिक मिलन
आवारा बादलों की तरह
अठखेलियाँ करते निर्जन गगन में
संवेदनाओं के रथ पर आरुढ़
प्रेम की नयी ऋचाएँ गढ़ते रहे
स्वप्नों के तिलिस्म से भरा अनकहा प्रेम
यर्थाथ के खुरदरे धरातल को छूकर भी
विलग न हो सका
भावों को कचरकर देहरी के पाँव तले
लहुलुहान होकर भी
विरह की हूक दबाये
अविस्मरणीय क्षणों की 
टीसती अनुभूतियों को
अनसुलझे प्रश्नों के कैक्टस को अनदेखा कर
नियति मानकर श्रद्धा से
पूजा करेंंगे आजीवन
प्रेम की अधूरी कहानी की
पूर्ण अनुभूतियों को।


   -श्वेता सिन्हा

Friday, 4 May 2018

आत्मबोध


हर शाम सूरज की 
बोझिल फीकी बाहें
स्याह क्षितिज में 
समाने के पहले
छूकर मेरी आँखों को
उदास कर जाती है
गहरे नीले नभ पर
छायी नीरवता
कोंचने लगती है
मन के सारे भावों को,
तब अपनी अनुभूतियों की
चिता पर लेटी
बेचैन,छटपटाती हुई
तुम्हारी स्मृतियों के एक-एक तारे गिनती हूँ
पूछती हूँ अनुत्तरित प्रश्न स्वयं से
क्यूँ मेरी सिसकियों को अनसुना कर
 विवशता का बहाना किये
बस टुकुर-टुकुर ताकते रहे?
तुम्हारे खोखले भावों में गहरे उतरती रही
तुम खेलते रहे निर्लज्जता से 
तुम्हारे छल को सच समझती रही
मैं जीती रही हर स्वप्न
भूल कर अपने अस्तित्व
पर फिर भी
लाख़ कोशिशों के बावजूद
न भूल सकी गंध
तुम्हारे चम्पई एहसास के
तुम्हें सीने से लगाये हर पल जीती रही
छल के जाल में उलझी
मन की यात्रा से थककर
अब तोड़कर कृत्रिम एहसासों के धागे
जलाकर छद्म अनुभूतियों का कफ़न
अपना सम्मान कर
आत्मबोध के आलोक में
जगमगाना चाहती हूँ।

-श्वेता सिन्हा


Sunday, 22 April 2018

अस्तित्व के मायने

बड़ी हसरत से देखता हूँ
वो नीला आसमान 
जो कभी मेरी मुट्ठी में था,
उस आसमान पर उगे
नन्हें सितारों की छुअन से
किलकता था मन
कोमल बादलों में उड़कर
चाँद के समीप
रह पाने का स्वप्न देखता रहा
वक़्त ने साज़िश की 
या तक़दीर ने फ़ैसला लिया
जलती हवाओं ने
झुलसाये पंख सारे
फेंक दिया तपती मरूभूमि में
कहकर,भूल जा 
नीले आसमान के ख़्वाबगाह में
नहीं उगते खनकदार पत्ते
टिमटिमाते सितारों से
नहीं मिटायी जा सकती है भूख,
और मैं
अपने दायरे के पिंजरें 
क़ैद  कर दिया गया 
बांधे गये पंखों को फड़फड़ाकर
मैं बे-बस देख रहा हूँ
ज़माने के पाँव तले कुचलते
मेरे नीले आसमान का कोना
जो अब भी मुझे पुकारता है
मुस्कुराकर अपनी  बाहें पसारे हुये
और मैं सोचता हूँ अक्सर 
एक दिन 
मैं छूटकर बंधनों से
भरूँगा अपनी उड़ान
अपने नीले आसमान में
और पा लूँगा
अपने अस्तित्व के मायने

#श्वेता सिन्हा 

Friday, 20 April 2018

क़दमों की आहट

साँझ की राहदारी में
क्षितिज की स्याह आँखों में गुम
ख़्यालों की सीढियों पर बैठी
याद के क़दमों की आहट टटोलती है।

आसमां की ख़ामोश बस्ती में
उजले फूलों के वन में भटकती
पलकों के भीतर डूबती आँखों से
पिघलते चाँद की तन्हाईयाँ सुनती है।

पागल समुंदर की लहरें
चाँद की उंगलियां छूने को बेताब
साहिल पर सीपियाँ बुहारती चाँदनी संग
रेत पर खोये क़दमों के निशां चुनती है।

मन की मरीचिका में
तपती मरुभूमि में दिशाहीन भटकते
बूँदभर चाहत लिए उम्र की पगडंडियों पर
बिछड़े क़दमों को ढूँढती नये ख़्वाब बुनती है।


    ---श्वेता सिन्हा

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...