क्या फर्क पड़ जायेगा
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हर बार यही सोचती हूँ
क्यों सोचूँ मैं विशेष झुण्ड की तरह
निपुणता से तटस्थ रहूँगी...
परंतु घटनाक्रमों एवं विचारों के
संघर्षों से उत्पन्न ताप
सारे संकल्पों को भस्म करने
लगती है ,
तब एक-एक कर
सहमतियों-असहमतियों के फुदने
भावनाओं की महीन सुईयों से
अपने विचारों के ऊपर
सजाकर सिलने लगती हूँ
फिर, शुद्ध स्वार्थ में गोते लगाते
बहरूपियों के
नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन से
उकताकर सोचती हूँ
बाहरी कोलाहल में
सम्मिलित होने का स्वांग क्यों भरूँ?
क्या फर्क पड़ जायेगा
अपने अंतर्मन की शांति की तलाश में
मेरी तटस्थता से
मेरी संवेदना को
अगर मृत मान लिया जाएगा ?
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श्वेता सिन्हा