Wednesday, 16 January 2019

समानता


देह की 
परिधियों तक
सीमित कर
स्त्री की 
परिभाषा
है नारेबाजी 
समानता की।

दस हो या पचास
कोख का सृजन
उसी रजस्वला काल 
से संभव
तुम पवित्र हो 
जन्म लेकर
जन्मदात्री
अपवित्र कैसे?

रुढ़ियों को 
मान देकर
अपमान मातृत्व का
मान्यता की आड़ में
अहं तुष्टि या
सृष्टि के
शुचि कृति का
तमगा पुरुष को

देव दृष्टि 
सृष्टि के 
समस्त जीव पर 
समान,
फिर...
स्त्री पुरुष में भेद?
देवत्व को 
परिभाषित करते 
प्रतिनिधियो; 
देवता का
सही अर्थ क्या?

देह के बंदीगृह से
स्वतंत्र होने को
छटपटाती आत्मा
स्त्री-पुरुष के भेद
मिटाकर ही
पा सकेगी
ब्रह्म और जीव
की सही परिभाषा।

-श्वेता सिन्हा



Saturday, 12 January 2019

शब्द


मौन हृदय के आसमान पर
जब भावों के उड़ते पाखी,
चुगते एक-एक मोती मन का 
फिर कूजते बनकर शब्द।

कहने को तो कुछ भी कह लो
न कहना जो दिल को दुखाय,
शब्द ही मान है,शब्द अपमान
चाँदनी,धूप और छाँव सरीखे शब्द।

न कथ्य, न गीत और हँसी निशब्द
रूंधे कंठ प्रिय को न कह पाये मीत,
पीकर हृदय की वेदना मन ही मन 
झकझोर दे संकेत में बहते शब्द।

कहने वाले तो कह जाते है 
रहते उलझे मन के धागों से,
कभी टीसते कभी मोहते 
साथ न छोड़े बोले-अबोले शब्द।

फूल और काँटे,हृदय भी बाँटे
हीरक,मोती,मानिक,माटी,धूल,
कौन है सस्ता,कौन है मँहगा
मानुष की कीमत बतलाते शब्द।

    #श्वेता सिन्हा
    (अक्षय गौरव पत्रिका में प्रकाशित मेरी लिखी एक रचना)



Wednesday, 9 January 2019

दर्दे दिल...

दर्दे  दिल  की अजब  कहानी  है
होंठों पर मुस्कां आँखों में पानी है

जिनकी ख़्वाहिश में गुमगश्ता हुये
उस राजा की  कोई और  रानी  है

रात कटती है  यूँ  रोते च़रागों की
ज्यों बाती ने ख़ुदकुशी की ठानी है

दर्द,ग़म,तड़प,अश्क और रूसवाई,
इश्क़ ने जहाँभर की खाक़ छानी है

बेहया दिल टूटकर भी धड़कता है
ज़िंदा लाशों की ये तो बदज़ुबानी है


-श्वेता सिन्हा

गुमगश्ता= भटकता हुआ, खोया हुआ





Thursday, 3 January 2019

हर क्षण से.....


नवतिथि का स्वागत सहर्ष
नव आस ले आया है वर्ष
सबक लेकर विगत से फिर
पग की हर बाधा से लड़कर 
जीवन में सुख संचार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

प्रकृति का नियम परिवर्तन 
काल-चक्र  जीवन विवर्तन
अवश्यसंभावी उत्थान पतन
समय सरिता में भीगकर
सूखे स्वप्नों में हो प्रस्फुटन
धैर्य के मोती पिरो के दर्द में
जीवन का तुम श्रृंगार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

हृदय अपमान भूल,मान नहीं
चबा जा बीज दंश, आन नहीं
बिकता बेमोल भूख,धान नहीं 
कुछ नहीं चाहूँ मन मेरे संत हो
आगत दिवस सारे दुखों का अंत हो
अलक्षित क्षण यह आस कर 
पल-पल यहाँ त्योहार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

समय के खेल में मानव विवश है
कुछ नहीं मेरा यहाँ क्यों हवस है?
नियति पर जोर किसका वश है?
जो किया संचित वो साथी कर्म है
उलझी पहेली कौन समझा मर्म है
माया जगत के तुम अतिथि
 इस सत्य को स्वीकार कर लो
हर क्षण से खुलकर प्यार कर लो

-श्वेता सिन्हा

Tuesday, 25 December 2018

धर्म


सोचती हूँ
कौन सा धर्म 
विचारों की संकीर्णता
की बातें सिखलाता है?

सभ्यता के
विकास के साथ
मानसिकता का स्तर
शर्मसार करता जाता है।

धर्मनिरपेक्षता 
शाब्दिक स्वप्न मात्र
नियम -कायदों के पृष्ठों में
दबकर कराहता है।

धर्म पताका
धर्म के नाम का
धर्म का ठेकेदार
तिरंगें से ऊँचा फहराता है।

शांति सौहार्द्र की 
डींगें हाँकने वाला
साम्प्रदायिकता की गाड़ी में
अमन-चैन ढुलवाता है।

अभिमान में स्व के
रौंदकर इंसानियत
निर्मम अट्टहास कर
धर्मवीर तमगा पा इठलाता है।

जीवन-चक्र
समझ न नादां
कर्मों का खाता,बाद तेरे
जग में रह-रह के पलटा जाता है।

मज़हबों के ढेर से
इंसानों को अलग कर देखो
धर्म की हर एक किताब में 
इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता है।

-श्वेता सिन्हा





Wednesday, 19 December 2018

चाँद..


तन्हाई की आँच में
टुकड़ों में गल रहा है चाँद,
दामन से आसमाँ के  
देखो! पिघल रहा है चाँद।

छत की मुंडेरों पर 
झुकी हैंं पलकें सितारों की,
फुनगी पर नीम की 
शमा-सा जल रहा है चाँद।

शायद कोई ख़्वाब होगा 
तसव्वुर में रुमानी-सा,
चूम कर पेशानी अब्र की 
करवट बदल रहा है चाँद।

हवा की बाँसुरी पर
थिरकते चमन के फूलों पर,
छिड़क इत्र चाँदनी की
शोख़ मचल रहा है चाँद।

शबनमी बूँद भरी
रेशमी पैरहन में लिपटा,
आसमाँ के बदन पर 
ख़्वाब मल रहा है चाँद।

-श्वेता सिन्हा

Monday, 17 December 2018

दिसम्बर


दिसम्बर
(१)
गुनगुनी किरणों का
बिछाकर जाल
उतार कुहरीले रजत 
धुँध के पाश
चम्पई पुष्पों की ओढ़ चुनर 
दिसम्बर मुस्कुराया

शीत बयार 
सिहराये पोर-पोर
धरती को छू-छूकर
जगाये कलियों में खुमार
बेचैन भँवरों की फरियाद सुन
दिसम्बर मुस्कुराया

चाँदनी शबनमी
निशा आँचल में झरती 
बर्फीला चाँद पूछे
रेशमी प्रीत की कहानी
मोरपंखी एहसास जगाकर
दिसम्बर मुस्कुराया

आग की तपिश में
मिठास घुली भाने लगी 
गुड़ की चासनी में पगकर
ठंड गुलाब -सी मदमाने लगी
लिहाफ़ में सुगबुगाकर हौले से
दिसम्बर मुस्कुराया

(२)

भोर धुँँध में
लपेटकर फटी चादर
ठंड़ी हवा के
कंटीले झोंकों से लड़कर
थरथराये पैरों को 
पैडल पर जमाता
मंज़िल तक पहुँचाते
पेट की आग बुझाने को लाचार
पथराई आँखों में 
जमती सर्दियाँ देखकर
सोचती हूँ मन ही मन
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो

वो भी अपनी माँ की
आँखों का तारा होगा
अपने पिता का राजदुलारा 
फटे स्वेटर में कँपकँपाते हुए
बर्फीली हवाओं की चुभन
करता नज़रअंदाज़
काँच के गिलासों में 
डालकर खौलती चाय
उड़ती भाप की लच्छियों से
बुनता गरम ख़्वाब
उसके मासूम गाल पर उभरी
मौसम की खुरदरी लकीर
देखकर सोचती हूँ
दिसम्बर तुम यूँ न क़हर बरपाया करो

बेदर्द रात के
क़हर से सहमे थरथराते
सीले,नम चीथड़ों के 
ओढ़न-बिछावन में
करवट बदलते
सूरज का इंतज़ार करते
बेरहम चाँद की पहरेदारी में
बुझते अलाव की गरमाहट
भरकर स्मृतियों में
काटते रात के पहर 
खाँसते बेदम बेबसों को 
देखकर सोचती हूँ 
दिसम्बर यूँ न क़हर बरपाया करो

-श्वेता सिन्हा

sweta sinha जी बधाई हो!,

आपका लेख - (दिसम्बर) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 

धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Wednesday, 12 December 2018

एहसास जब.....

एहसास जब दिल में दर्द बो जाते हैं
तड़पता देख के पत्थर भी रो जाते हैं

ऐसा अक्सर होता है तन्हाई के मौसम में
पलकों से गिर के ख़्वाब कहीं खो जाते हैं

तुम होते हो तो हर मंज़र हसीं होता है
जाते ही तुम्हारे रंग सारे फीके हो जाते हैं

उनींदी आँखों के ख़्वाब जागते हैंं रातभर
फ़लक पे चाँद-तारे जब थक के सो जाते हैं

जाने किसका ख़्याल आबाद है ज़हन में
क्यूँ हम ख़ुद से भी अजनबी हो जाते हैं

बीत चुका है मौसम इश्क़ का फिर भी
याद के बादल क़ब्र पे आकर रो जाते हैं

वक़्त का आईना मेरे सवाल पर चुप है
दिल क्यों नहीं चेहरों-से बेपर्दा हो जाते हैं

-श्वेता सिन्हा


मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...