Sunday, 14 June 2020

शोक गीत


चेतना के बंद कपाट के पार,
मनमुताबिक न मिल पाने की
तीव्रतम यंत्रणा से क्षत-विक्षिप्त,
भरभरायी उम्मीद घूरती है।

अप्राप्य इच्छाओं के कोलाज
आँसुओं में भीगकर गलते है,
जीवन की धार भोथड़ होकर,
संघर्ष का गला रेतती है।

प्रतिकूल जीवन के ढर्रे से विद्रोह
संवाद का कंठ अवरुद्ध करके,
भावनाओं की सुनामी का ज्वार
अनुभूतियों का सौंदर्य लीलती है।

मन के अंतर्द्वंद्व का विष पीकर
मुस्कान में घोंटकर श्वास वेदना,
टूटी देह, फूटे प्रारब्ध से लड़कर 
जीवन का मंत्र बुदबुदाती पीड़ा।

विजय और उम्मीद पताका लिए
स्व,स्वजन,स्वदेश के लिए जूझते, 
साहसी,वीर योद्धाओं का अपमान है,
कायरों के आत्मघात पर शोक गीत।

©श्वेता सिन्हा
१४ जून २०२०

Wednesday, 10 June 2020

क्या तुम नहीं डरते?


सुनो ओ!जंगल के दावेदारों
विकास के नाम पर
लालच और स्वार्थ की कुल्हाड़ी लिए
तुम्हारी जड़ को 
धीरे-धीरे बंजर करते,
तुम्हारी आँखों में सपने भरकर
संपदा से भरी भूमि को
कंक्रीट में बदलते,
हवा में फैले जंगली फूलों की  
सुगंध सोखकर,
धान के खेतों में
कारखानों की चिमनी का ज़हरीला धुँआ
रोपने वाले "दिकुओं" 
के झाँसे में आकर 
अपने गाँव को
शहर बनाने की होड़ में
माटी की खुशबू
मत बेचो।

शिक्षा-स्वास्थ्य और संस्कृति के लिए
किया गया 
उलगुलान का संकल्प बिसराकर 
 बारूद और कारतूस के बल पर
निर्दोषों के खून माटी में सानकर
तुम अपने अधिकार नहीं
उपजा पाओगे,
मत सोचो कि
भटककर बीहड़ में
तुम क्रांतिदूत बन अंधविश्वास
और पिछड़ेपन से
से समाज को उबार लोगे...!

शहरी चकाचौंध के आकर्षण में
 कठपुतली बन 
 स्वार्थी जनप्रतिनिधियों,
चालक माफियाओं,व्यापारियों
 बहेलिये के जाल में फँसकर
अपनी मासूमियत का सौदा मत करो
जंगल-जमीन सौंपकर
मान-सम्मान गिरवी रखकर
सुविधायुक्त जीवन की लालसा में 
लुप्त होती जनजातियों के वंश बीज  
अपने पूर्वजों की आत्मा का गीत
मत नष्ट करो।

जंगल सूना करके
रोता छोड़कर 
गलियाँ,ताल,वृक्षों की बाहें
आधुनिकता की होड़ में
अपने रक्त के ईंधन से
शहर के चौराहे जगमगाकर
हड्डियाँ गलाकर बनाकर
विकास का लुभावना ढाँचा 
स्वाभिमान गँवाकर
शहरी बगुलों के व्यवहार से विस्मित
मिलनसारिता भुलाकर
भीड़ के विचित्र व्यवहार से
 अकबका कर
अपनी " प्रकृति माँ" की स्मृतियों से विह्वल
थके-हारे जब लौटोगे 
अजनबी गंध देह में लपेटकर
तुम्हें नहीं पहचानेंगी 
कटे हुए जंगल की हवाएँ,
धुएँ से काली हो चुकी बेजान माटी
तुमसे लिपटकर नहीं खेलेगी
लौटकर वापस नहीं आयेंगी
पठार विहीन मैदान के 
उसपार गुम हो जायेंगी तुम्हारी
आवाज़
रेत पीकर मरती नदियाँ
सूखे पत्थर  पर पड़े 
झरनों के निशान
कीचड़ भरे ताल में 
अंतिम साँस लेती कुमुदिनी
सभी के प्रश्नों के उत्तर
तुम कैसे दे पाओगे?

पाकड़,शीशम के जड़
खोदने के पहले
करम,साल की शाख़
रेतने के पहले 
सोचो न एक बार 
सरहुल,टुसू,करमा,
 लोकपर्वों के अवसर पर
नव परिधान से सज्ज
सरई की खुशबू से
मताया जंगल
टकटक लाल ढाक
जूड़े में खोंसकर
मांदर की थाप पर 
महुआ गंध में डूबकर
 थिरकते पाँव,
लोकगीतों की मिठास
में पगा पीठा, हड़िया,
करील का अचार 
खाते-पीते नाचते-गाते
परिचत,सम्बन्धियों,मित्रों से
ताल मिलाती कोयल की कूक
मुर्गियों बतखों की चूँ-चूँँ से
खिलखिलाते खलिहान,
फल-फूल और अनाज
से भरा-पूरा होने का
संपन्नता का आशीष देने वाली
प्रकृति माँ को पूजने के लिए
सखुआ का पेड़
बहनों के नेह में गूँथी
करम की डालियाँ
फिर कहाँ पाओगे?
तुम भूल गये कैसे
"धरती आबा" को दिया वचन?
क्या तुम नहीं डरते हो 
अब प्रकृति के शाप से?

©श्वेता सिन्हा
१० जून २०२०





Tuesday, 2 June 2020

दस्तक...


नन्हें जुगनुओं को
स्याह दुपट्टे के
किनारों में गूँथती रात
शाम से ही
करती पहरेदारी
नभ के माथे पर
लगाकर
दमकते चाँद का 
रजत टीका।

चिड़ियों की 
अबूझ अंतराक्षरी 
सुनकर भोर लेती 
अंगडाई, 
शीतल झकोरे की
छुअन से सिहरी
पत्तियों पर
नर्तन करती 
धूप की शोख़ बालियाँ 
 ठुमककर रिझाती 
 बाग-बगीचे को ।

नदियों,झरनों की
उन्मुक्त खिलखिलाहट से
आह्लादित
दिन कुलांचे भरकर
पुकारता है घटाओं को
धरती के आँचल में
ऋतुओं का
धनक रंग धरने को।

कठोर गगनचुंबी गर्वीले
निर्जन धूसर पहाड़ के
सीने पर टँके
गहरे हरे घने वृक्षों से
उलझी लताओं में
छुआ-छुई खेलती
गिलहरियाँ 
पकते धूप की
जलती पीड़ा कुतरती है।

कोमल पातों से 
लटकी बूँदों को पीकर
जोते गये खेतों की
उर्वर माटी को
बींधती जीवनदायिनी
 किरणें
 नियमित,निरंतर
अपने प्रगाढ आलिंगन से
धरती के गर्भ में पलते
भविष्य के भ्रूणों में
नवप्राण भरती है।

और...
उपभोगवादी,अवसरवादी 
अतृप्त लालसाओं से युक्त
सुविधाभोगी मनुष्य 
दूषित कर प्रकृति 
छीजता  संसाधन
बिगाड़ता संतुलन।

सुनो मनुष्य!
समरसता की आस में
थक चुकी रोष से भरी 
प्रकृति के प्रतिकार का
क्षणांश नाद ही
महाविनाश  की
मौन पदचाप,
दस्तक है।

#श्वेता सिन्हा
२ जून२०२०

Saturday, 30 May 2020

अबके बरस


ताखा पर 
बरसों से
जोड़-जोड़कर रखा 
अधनींदी और
स्थगित इच्छाओं से
भरा गुल्लक
मुँह चिढ़ा रहा है
अबके बरस भी...।

खेत से पेट तक 
मीलों लंबा सफ़र 
शून्य किलोमीटर
के शिलापट्ट पर
 टिका रह जायेगा
 अबके बरस भी...।
  
सोंधी स्मृतियों पर
खोंसे गये
पीले फूलों की सुगंध में,
अधपके, खट्टमीट्ठे
फलियों और अमिया
पकने के बाद के
सपनें टँके लाल दुपट्टे
संदूकची में सहेजकर
रख दी जायेगी
अबके बरस भी...।

महामारी की कुदृष्टि से
छिपकर उगी
  उम्मीद के बीज,
बेमौसम.बारिश से 
बदरंग हुई
गलने के बाद 
बची तोरई,भिंड़ी
अरबी,बैंगन,बाजरा
 की फसल
कुछ नन्हें फल
हाट तक नहीं पहुँचेगे
अबके बरस...।

भयभीत,व्यग्र आँखें
बेबसी से देख रही हैं
शिवालिक की श्रृंखलाओं
को पार कर आई
मीलों आच्छादित
भूरे-काले उड़ते,
निर्मम बादलों से
बरसती विपदा,
हरे सपनों के बाग को
पलभर में चाटकर
ठूँठ करती 
सपनों, उम्मीदों को
तहस-नहस कर  
लील रही हैं
निर्दयी,निष्ठुर
स्वार्थी टिड्डियाँ
अबके बरस...।

फसल बीमा,
राहत घोषणाएँ
बैंक के चक्कर 
सियासी पेंच में 
उलझकर
सूखेंगे खलिहान
गुहार और आस को
टोहते,कलपते बीत जायेगा
अबके बरस भी...।

©श्वेता सिन्हा
३० मई २०२०


Friday, 29 May 2020

छलावा


अपनी छोटी-छोटी
जरुरतों के लिए
हथेली पसारे
ख़ुद में सिकुड़ी,
बेबस स्त्रियों को 
जब भी देखती थी
सोचती थी... 

आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भरता ही
शर्मिंदगी और कृतज्ञता
के भार से धरती में
गड़ी जा रही आँखों को
बराबरी में देखने का
अधिकार दे सकेगा।
पर भूल गयी थी...
नाजुक देह,कोमल मन के
समर्पित भावनाओं के
रेशमी तारों से बुने
स्त्रीत्व का वजन
कठोरता और दंभ से भरे
पुरुषत्व के भारी 
पाषाण की तुलना में
कभी पलडे़ में
बराबरी का
हो ही नहीं सकता।

 आर्थिक आत्मनिर्भरता
 "स्व" की पहचान में जुटी,
अस्तित्व के लिए संघर्षरत,
सजग,प्रयत्नशील 
स्त्रियों की आँख पर
 सामर्थ्यवान,सहनशील,
दैवीय शक्ति से युक्त,
चाशनी टपकते
अनेक विशेषणों की
पट्टी बाँध दी जाती है
चतुष्पद की भाँति,
ताकि 
पीठ पर लदा बोझ
दिखाई न दे।

चलन में नहीं यद्यपि
तथापि स्त्री पर्याय है
स्वार्थ के पगहे से बँधा
जीवन कोल्हू के वर्तुल में
निरंतर जोते हुए
बैल की तरह
जिसे कभी कौतूहल
तो कभी सहानुभूति से
देखा जाता है,
उनके प्रति
 सम्मान और प्रेम का 
 प्रदर्शन
 छलावा के अतिरिक्त
 कुछ भी नहीं
 शायद...!
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©श्वेता सिन्हा
२९मई २०२०

Tuesday, 26 May 2020

व्याकुल मीन


रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।
मौन अबूझ संकेतों की,
भाषा पढ़-पढ़ बौराता है।

प्रश्नों की खींचातानी से
मितवा आँखें जाती भीग,
नेह का बिरवा सूखे न
मनवा तू अंसुवन से सींच,
साँस महक कस्तूरी-सी , 
अब गंध जीया नहीं जाता है। 

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

दिन-दिनभर कूहके कूहू
विरह वेदना लहकाती,
भीतर-भीतर सुलगे चंदन
स्वप्न भभूति लिपटाती,
संगीत बना उर का रोदन
जोगी मन तुम्हें मनाता है।

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

जग का खारापन पीती रही
स्वाति बूँद की आस लिए,
जीवन लहरों-सा जीती रही
सीप मोती की प्यास लिए,
व्याकुल मीन नेहसिक्त मलंग
चिरशांति समाधि चाहता है।

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

©श्वेता सिन्हा

Friday, 22 May 2020

परिपक्वता


किसी 
अदृश्य मादक सुगंध
की भाँति
प्रेम ढक लेता है
चैतन्यता,
मन की शिराओं से
उलझता प्रेम
आदि में 
अपने होने के मर्म में
"सर्वस्व" 
और सबसे अंत में 
"कुछ भी नहीं"
 होने का विराम है।

कदाचित्
सर्वस्व से विराम के
मध्य का तत्व
जीवन से निस्तार
का संपूर्ण शोध हो...
किंतु 
प्रकृति के रहस्यों का
सूक्ष्म अन्वेषण,
"आत्मबोध"
विरक्ति का मार्ग है
गात्रधर सासांरिकता
त्याज्य करने से प्राप्त।

प्रेम असह्य दुःख है! 
तो क्या "आत्मबोध"
व्रणमुक्त
संपूर्ण आनंद है?
गुत्थियों को
सुलझाने में
आत्ममंथन की
अनवरत यात्रा
जो प्रेम की
निश्छलता के
बलिदान पर
ज्ञान की
परिपक्वता है।

©श्वेता सिन्हा

Tuesday, 19 May 2020

क्या विशेष हो तुम?


ये तो सच है न!!
तुम
कोई वीर सैनिक नहीं,
जिनकी मृत्यु पर
 देश
गर्वित हो सके।

न ही कोई 
प्रतापी नेता
जिनकी मौत 
 के मातम में
 झंडे झुकाकर
 राष्ट्रीय शोक
 घोषित कर
 दिया जाए। 
 योगदान,त्याग
और बलिदान के
 प्रशस्ति-पत्र पढ़े जायें।

न ही कोई
अभिनेता
जिसकी मौत पर
 बिलखते,छाती पीटते
 प्रशंसकों द्वारा
धक्का-मुक्की कर
श्रद्धापुष्प अर्पित किये जाये,
उल्लेखनीय
जीवन-गाथाओं
की वंदना की जाए।

न ही तुम किसी
धर्म के ठेकेदार हो,
न धनाढ्य व्यापारी,
जिसकी मौत पर
आयोजित
 शोक सभाओं से
 किसी प्रकार का कोई
 लाभ मिल सके।

 कहो न!!
 क्या विशेष हो तुम?
 जिसकी गुमनाम  मौत पर
 क्रांति गीत गाया जाए?
 शोक मनाया जाए?
महामारी के दौर की
 एक चर्चित भीड़!
 सबसे बड़ी ख़बर,
 जिनके अंतहीन दुःख 
अब रोमांचक कहानियाँ हैं..?
जिनकी देह की
बदबू से बेहाल तंत्र
नाक-मुँह ढककर 
उपेक्षा की चादर लिए
राज्य की सीमाओं पर
प्रतीक्षारत है...
 संवेदना और सहानुभूति के
 मगरमच्छी आँसू और
हवाई श्रद्धांजलि 
पर्याप्त नहीं क्या?

 मौलिक अधिकारों के
 संवैधानिक प्रलाप से
 छले जानेवाले
ओ मूर्ख!!
तुम लोकतंत्र का 
मात्र एक वोट हो
और..
डकार मारती
तोंदियल व्यवस्थाओं के
लत-मर्दन से
मूर्छित
बेबस"भूख"

©श्वेता सिन्हा
१९मई२०२०

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...