Saturday, 9 April 2022

गीत अधूरा प्रेम का


गीत अधूरा प्रेम का,
रह-रहकर मैं  जाप रही हूँ।
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी
एक ही राग आलाप रही हूँ।

मौसम बासंती स्वप्नों का क्षणभर ठहरा,
पाँखें मन की शिथिल हुई सूना सहरा।
आँखों की हँसती आशाएँ बेबस हो मरीं,
भावों के मध्य एकाकीपन की धूल भरी।

विरहा की इस ज्वाला को,
स्मृतियों की आहुति दे ताप रही हूँ।
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।

व्यग्र भावों के भोथरेपन का कोलाहल,
मधु पात्र में भरा आहों का हालाहल।
अधूरी कहानियाँ,अधलिखी कविताओं-सी
अधूरे चित्रों की रहस्यमयी नायिकाओं-सी।

तत्व-ज्ञान से परिपूर्ण इक जोगी की, 
उपेक्षा हृदय में छाप रही हूँ।
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।

समय की दरारों में पड़ा निश्चेष्ट मौन,
चेष्टाओं में प्रीत की भंगिमाएँ अब गौण।
तन के घर में मन मेरा परदेश रहा, 
जीवन का अभिनय कितना शेष रहा?

प्रश्न ताल में डूबती-उतरती,
पुरइन पर बूँदों जैसी काँप रही हूँ.
व्याकुल नन्ही चिड़िया-सी,
एक ही राग आलाप रही हूँ।
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-श्वेता सिन्हा
९अप्रैल २०२२
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Thursday, 24 March 2022

अल्पसंख्यक



विश्व के इतिहास में दर्ज़
अनगिनत सभ्यताओं में
भीड़ की धक्का-मुक्की से अलग होकर
अपनी नागरिकता की फटी प्रतियाँ लिए
देशों,महादेशों,
समय के मध्यांतर में 
 देश-देशान्तर की
सीमाओं के बाहर-भीतर
अपनी उपस्थिति नामांकित करवाने के लिए
संघर्षरत 
सामाजिक खाँचों में अँटने 
की कोशिश करते
अनेक-अनदेखे कारणों से 
लगभग एक-सी कहानियों
के पात्र हैं अल्पसंख्यक।

अपने ही देश में,
अपने गाँव में
बहरूपियों के झाँसे में 
विश्वास की चट्टानों के
खिसकने से स्थान बदलती
अंर्तमन की प्लेटों से उत्पन्न
भूकंप और सुनामी में रक्तरंजित 
अपनों की आतंकित चीख़ें
अपने घर,माटी छोड़ने को करती है विवश 
झुंड के झुंड लोग बन जाते हैं
बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक।

 अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक की
गुणात्मक मात्राओं के मान के भार से दबे
मानवीय संवेदनाओं के 
अनुत्तरित प्रश्नों को भूलभुलैया के 
विवादास्पद संग्रहालय में
रखा गया है
जिसे परिस्थितियों के अनुसार
प्रदर्शनी में लगाकर
संवेदनाओं का
व्यापार किया जाता रहा है...।

सोचती हूँ....
क्यों नहीं सुनी जाती
दर्द में डूबी चीखें?
अनसुनी प्रार्थानाओं का कर्ज़ 
चढ़ता ही रहता है,
जीवन की भीख माँगती मृत्यु
अपराधी लगती है
किसी के अस्तित्व को रौंदकर
धारण किया गया विजय का मुकुट 
क्या शांति और सुख देता है ?
किसी धर्म, जाति ,समुदाय की छाती पर
अपने वर्चस्व का कील ठोंकने के क्रम में 
बहती रक्त की नदियों के तटपर
स्थापित करने को कटिबद्ध अपना 
एकछत्र साम्राज्य,
क्या सचमुच
कुछ हासिल होगा विश्व विजेता बनकर?
शायद एक बार
तुम्हें करना चाहिए
सिकंदर की आत्मा का
साक्षात्कार। 


-श्वेता सिन्हा
२४ मार्च २०२२

Thursday, 17 March 2022

रंग


 भोर का रंग सुनहरा,
साँझ का रंग रतनारी,
रात का रंग जामुनी लगता है...।

हया का रंग गुलाबी,
प्रेम का रंग लाल,
हँसी का रंग हरा लगता है...।

कल्पनाओं का रंग नीला,
मन का रंग श्वेत,
उन्माद का रंग नारंगी लगता है..,।

क्रोध का रंग गहरा,
लोभ का रंग धूसर,
जिद का रंग बदरंग लगता है...।

उदासी का कोई रंग नहीं
शायद  उदासी 
सारे रंग सोख लेती है,
और आँसू ...
सारे रंगों को फीका कर देते हैं।

जीवन में समय के अनुरूप
एक से दूसरे पल में 
परिवर्तित होते रंग प्रमाण है 
जीवन की क्रियाशीलता का...।

उत्सव का इंद्रधनुषी रंग 
हाइलाइट कर देता है जीवन के
कुछ लटों को
खुशियों के रंगों से ...।

#श्वेता सिन्हा
१७ मार्च २०२२

Wednesday, 9 March 2022

क्यों अधिकार नहीं...



समय के माथे पर
पड़ी झुर्रियाँ 
गहरी हो रही हैं।
अपनी साँसों का
स्पष्ट शोर सुन पाना
जीवन-यात्रा में एकाकीपन के
 बोध का सूचक है।

इच्छाओं की
चारदीवारी पर उड़ रहे हैं जो
श्वेत कपोत
मुक्ति की प्रार्थनाओं के
संदेशवाहक नहीं,
उम्र की पीठ पर लदी
अतृप्ति की बोरियों के
पहरेदार हैं।

मन के पाताल कूप में गूँजती 
कराहों की प्रतिध्वनियाँ
सृष्टि के जन्मदाता से 
चाहती है पूछना
क्यों अधिकार नहीं मुझे
चुन सकूँ
किस रूप में जन्म लूँ ?

-श्वेता सिन्हा

Thursday, 24 February 2022

युद्ध...


युद्ध की बेचैन करती
तस्वीरों को साझा करते
न्यूज चैनल,
समाचारों को पढ़ते हुए
उत्तेजना से भरे हुए
 सूत्रधार
 शांति-अशांति की 
 भविष्यवाणी,
समझौता के अटकलों
और सरगर्मियों से भरी बैठकें
विशेषज्ञों के कयास
उजड़ी आबादी 
बारूद,बम,टैंकरों, हेलीकॉप्टरों की
गगन भेदी गड़गड़ाहटों वाले
वीडियो,रक्तरंजित देह,बौखलायी 
बेबस भीड़,रोते-बिलखते बच्चे 
किसी चित्रपट की रोमांचक
तस्वीरें नहीं
महज एक अशांति का
समाचार नहीं
तानाशाह की निरंकुशता, 
विनाश के समक्ष दर्शक बने
बाहुबलियों की नपुंसकता,
यह विश्व के 
नन्हे से हिस्से में उठती
चूल्हे की चिंगारी नही 
आधिपत्य स्थापित 
करने की ज़िद में
धरती की कोख को
बारूद से भरकर
पीढ़ियों को बंजर करने की
विस्फोटक भूमिका है।


आज जब फिर से...
स्वार्थ की गाड़ी में 
जोते जा रहे सैनिक...
अनायास ही बदलने लगा मौसम
माँ की आँखों से
बहने लगे खून,
प्रेमिकाएँ असमय बुढ़ा गयी
खिलखिलाते,खेलते बच्चे 
भय से चीखना भूल गये,
फूल टूटकर छितरा गये
तितलियाँ घात से गिर पड़ीं
आसमान और धरती 
धुआँ-धुआँ हो गये,
उजड़ी बस्तियों की तस्वीरों के
भीतर मरती सभ्यता 
इतिहास में दर्ज़ 
शांति के सभी संदेशों को
झुठला रही है..
कल्पनातीत पीड़ा से
 भावनाशून्य मनुष्य की आँखें
चौंधिया गयी हैं
 जीवन के सारे रंग 
 लील लेता है 
 युद्ध...। 

-श्वेता सिन्हा
२४ फरवरी २०२२


Sunday, 13 February 2022

प्रेम.....



बनते-बिगड़ते,ठिठकते-बहकते
तुम्हारे मन के अनेक अस्थिर,
जटिल भाव के बीच सबसे कोमल
स्थायी एहसास बनकर निरंतर 
तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ मैं...

पवित्र नदी,कुएँ या झील में
तुम्हारे द्वारा उछाले गये
प्रार्थनाओं का सिक्का बनकर
 डूब जाना चाहती हूँ मैं
प्रेम के गहरे समुंदर में,
किसी मंदिर में जोड़ी गयी हथेलियों 
के मध्य,बंद पलकों की झिर्रियों
से झाँकना चाहती हूँ मैं,
दीये की लौ की तरह
तुम्हारे पथ में
जलना चाहती हूँ मैं,
रूनझुनी घंटियों की स्वरलहरी सी
 गूँजना चाहती हूँ मैं
तुम्हारे अंर्तमन में...
किसी दरगाह,मज़ार पर,
किसी पावन वृक्ष के ईर्दगिर्द 
मन्नत का पवित्र धागा बनकर
लिपटना चाहती हूँ
तुम्हारे मन की अंतिम इच्छा बनकर।

फूलों पर मचलती तितली देखते हुए
बारिश के झोंकों के साथ,
हवाओं की अठखेलियों के साथ,
नीरस शाम की चाय के साथ,
शाम ढले सबसे चमकीला तारा ढूँढ़ते हुए,
जुगनू को मुग्ध निहारते हुए,
तुम्हारे लैपटॉप की स्क्रीन पर,
फाइलों के जरूरी कागज़ों के बीच
अनायास ही मिल गयी
किसी विशेष स्मृति चिह्न की तरह
छू जाना चाहती हूँ तुम्हारे होंठों को
बनकर मीठी-सी मुस्कान,
किसी इत्र की खुशबू की तरह
करना चाहती हूँ तुम्हें भाव विभोर।

सुनो न...
मैं रहना चाहती हूँ
तुम्हारे जीवन में
बनकर शाश्वत प्रेम
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में,
आँखों की स्वप्निल छवि में,
होंठों से उच्चरित मंत्र की तरह
तुम्हारे द्वारा पढ़ी या लिखी गयी
 कहानी,कविताओं, प्रेम पत्रों की
 एकमात्र नायिका बनकर...।

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 -श्वेता सिन्हा
 १३ फरवरी २०२२

Thursday, 10 February 2022

एकमात्र विकल्प


रश्मि पुंज निस्तेज है
 मुखौटों का तेज है
 सुन सको तो सुनो
 चेहरा पढ़ने में असमर्थ
 आँखों का मूक आर्तनाद।


झुलस रही है तिथियाँ
श्रद्धांजलि  रीतियाँ
भीड़ की आड़ में
समय की लकीरों पर
जूतों के निशान है।


विलाप की विवेचना
शव होती संवेदना
अस्थिपंजर से चिपकी
अस्थियों का मौन
साँसों पर प्रश्न चिह्न है।


धूल-धूसरित,मलबे 
छितराये हुए अवशेष 
विघटन की प्रक्रिया में
हर खंडहर हड़प्पा नहीं 
जीवित मनुष्यों का उत्खनन है।

अफ़रा तफ़री उत्सवी
मृत्यु शोक मज़हबी 
निरपेक्ष राष्ट्र की
प्राणरक्षा के लिए
संप्रदायों का आत्महत्या करना 
एकमात्र विकल्प है।


-श्वेता सिन्हा
१०फरवरी२०२२


 

Tuesday, 25 January 2022

भविष्य के बच्चे


1949 में जन्मे बच्चों की
गीली स्मृतियों में उकेरे गये
कच्ची मिट्टी, चाभी वाले,
डोरी वाले कुछ मनोरंजक खिलौने,
फूल,पेड,तितलियाँ,
चिडियों,घोंसले,परियाँ,
सूरज को दादा
और चाँद को मामा कहने वाली
मासूम कविताएँ
स्कूल,चौराहे, गली-कूचों में
शान से फहरते तिरंगे और
स्वतंत्रता के लिए बलिदान हुए
 शौर्यवीरों की
गौरवशाली भावपूर्ण 
कहानियाँ बोयी गयी थी।
सौहार्दपूर्ण वातावरण में
जाति-धर्म से परे
आँख में भरे गये थे
मनुष्यता की गुणवत्ता वाले
राष्ट्रहित सर्वोपरि का मंत्र जापते
सुखी,संपन्न आह्लाद से लबालब
मूल्यवान भविष्य के स्वप्न...।

धीरे-धीरे बचपन से
कच्ची मिट्टी सूख गयी
चाभी की जगह
बैटरी वाली कार,
खतरनाक बंदूकों ने ले लिए,
चिडियों,तितलियों,फूल और
पेडों को तस्वीरों में कैद कर 
चाँद और सूरज की
रोशनी में लटकाकर
कविताओं से निकालकर
वैज्ञानिक परीक्षण के लिए
भेज दिया गया,
आज़ादी का महत्व,
बलिदानों की कहानियाँ
और बलिदानियों का
आलोचनात्मक विश्लेषण,
महत्वपूर्ण दिवस और तिथियाँ
सामान्य ज्ञान की किताबों तक
सीमित होना ,झंडोत्तोलन का
छुट्टी का एक दिन की तरह
औपचारिक हो जाना
चिंताजनक है।

किंतु
सोचती हूँ...
स्वकेंद्रित जीवन 
स्वनिर्माण सर्वोपरि का
जन्मघुट्टी पीते बचपने के ढेर से अलग
कुछ बच्चों का
चीजों को यथावत स्वीकार न करना,
विषयों का तार्किक आकलन करना
आविष्कारक पीढ़ी का
पेंसिल की नोंक रगड़कर
दुनिया के नक्शे पर लिखना
ग्लोबल गाँव,
जाति-धर्म को ख़ारिज करना,
 सामाजिक आडंबरों  
पर व्यवहारिक प्रश्न पूछना
मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील होना
छब्बीस जनवरी के परेड का
लाइव टेलीकास्ट देखते हुए
राष्ट्र गीत गुनगुनाते हुए,सलामी देते हुए कहना
"मैं भी सैनिक बनना चाहता हूँ"
भविष्य के बदलाव का शुभ संकेत हैं
देश के लिए सम्मान पनपना
भावनाओं का जन्मना...,
कोई फर्क नहीं पड़ता कि
खुरदरी दरी या आरामदायक बिस्तर है
आँखों के सपने कंम्प्यूटराइज़्ड ही सही
पर अपने देश का तिरंगा लिए
हँसते-मुस्कुराते 2022 के बच्चे
उम्मीद की संजीवनी बूटी से लगते हैं
जो विश्वास दिलाते है कि  
एक दिन अवश्य करेंगे
व्याधि मुक्त राष्ट्र का निर्माण।

#श्वेता सिन्हा
२५ जनवरी २०२२

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...