Saturday, 30 May 2020

अबके बरस


ताखा पर 
बरसों से
जोड़-जोड़कर रखा 
अधनींदी और
स्थगित इच्छाओं से
भरा गुल्लक
मुँह चिढ़ा रहा है
अबके बरस भी...।

खेत से पेट तक 
मीलों लंबा सफ़र 
शून्य किलोमीटर
के शिलापट्ट पर
 टिका रह जायेगा
 अबके बरस भी...।
  
सोंधी स्मृतियों पर
खोंसे गये
पीले फूलों की सुगंध में,
अधपके, खट्टमीट्ठे
फलियों और अमिया
पकने के बाद के
सपनें टँके लाल दुपट्टे
संदूकची में सहेजकर
रख दी जायेगी
अबके बरस भी...।

महामारी की कुदृष्टि से
छिपकर उगी
  उम्मीद के बीज,
बेमौसम.बारिश से 
बदरंग हुई
गलने के बाद 
बची तोरई,भिंड़ी
अरबी,बैंगन,बाजरा
 की फसल
कुछ नन्हें फल
हाट तक नहीं पहुँचेगे
अबके बरस...।

भयभीत,व्यग्र आँखें
बेबसी से देख रही हैं
शिवालिक की श्रृंखलाओं
को पार कर आई
मीलों आच्छादित
भूरे-काले उड़ते,
निर्मम बादलों से
बरसती विपदा,
हरे सपनों के बाग को
पलभर में चाटकर
ठूँठ करती 
सपनों, उम्मीदों को
तहस-नहस कर  
लील रही हैं
निर्दयी,निष्ठुर
स्वार्थी टिड्डियाँ
अबके बरस...।

फसल बीमा,
राहत घोषणाएँ
बैंक के चक्कर 
सियासी पेंच में 
उलझकर
सूखेंगे खलिहान
गुहार और आस को
टोहते,कलपते बीत जायेगा
अबके बरस भी...।

©श्वेता सिन्हा
३० मई २०२०


Friday, 29 May 2020

छलावा


अपनी छोटी-छोटी
जरुरतों के लिए
हथेली पसारे
ख़ुद में सिकुड़ी,
बेबस स्त्रियों को 
जब भी देखती थी
सोचती थी... 

आर्थिक रूप से
आत्मनिर्भरता ही
शर्मिंदगी और कृतज्ञता
के भार से धरती में
गड़ी जा रही आँखों को
बराबरी में देखने का
अधिकार दे सकेगा।
पर भूल गयी थी...
नाजुक देह,कोमल मन के
समर्पित भावनाओं के
रेशमी तारों से बुने
स्त्रीत्व का वजन
कठोरता और दंभ से भरे
पुरुषत्व के भारी 
पाषाण की तुलना में
कभी पलडे़ में
बराबरी का
हो ही नहीं सकता।

 आर्थिक आत्मनिर्भरता
 "स्व" की पहचान में जुटी,
अस्तित्व के लिए संघर्षरत,
सजग,प्रयत्नशील 
स्त्रियों की आँख पर
 सामर्थ्यवान,सहनशील,
दैवीय शक्ति से युक्त,
चाशनी टपकते
अनेक विशेषणों की
पट्टी बाँध दी जाती है
चतुष्पद की भाँति,
ताकि 
पीठ पर लदा बोझ
दिखाई न दे।

चलन में नहीं यद्यपि
तथापि स्त्री पर्याय है
स्वार्थ के पगहे से बँधा
जीवन कोल्हू के वर्तुल में
निरंतर जोते हुए
बैल की तरह
जिसे कभी कौतूहल
तो कभी सहानुभूति से
देखा जाता है,
उनके प्रति
 सम्मान और प्रेम का 
 प्रदर्शन
 छलावा के अतिरिक्त
 कुछ भी नहीं
 शायद...!
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©श्वेता सिन्हा
२९मई २०२०

Tuesday, 26 May 2020

व्याकुल मीन


रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।
मौन अबूझ संकेतों की,
भाषा पढ़-पढ़ बौराता है।

प्रश्नों की खींचातानी से
मितवा आँखें जाती भीग,
नेह का बिरवा सूखे न
मनवा तू अंसुवन से सींच,
साँस महक कस्तूरी-सी , 
अब गंध जीया नहीं जाता है। 

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

दिन-दिनभर कूहके कूहू
विरह वेदना लहकाती,
भीतर-भीतर सुलगे चंदन
स्वप्न भभूति लिपटाती,
संगीत बना उर का रोदन
जोगी मन तुम्हें मनाता है।

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

जग का खारापन पीती रही
स्वाति बूँद की आस लिए,
जीवन लहरों-सा जीती रही
सीप मोती की प्यास लिए,
व्याकुल मीन नेहसिक्त मलंग
चिरशांति समाधि चाहता है।

रूठे-रूठे न रहो प्रिय,
अंतर्मन अकुलाता है।

©श्वेता सिन्हा

Friday, 22 May 2020

परिपक्वता


किसी 
अदृश्य मादक सुगंध
की भाँति
प्रेम ढक लेता है
चैतन्यता,
मन की शिराओं से
उलझता प्रेम
आदि में 
अपने होने के मर्म में
"सर्वस्व" 
और सबसे अंत में 
"कुछ भी नहीं"
 होने का विराम है।

कदाचित्
सर्वस्व से विराम के
मध्य का तत्व
जीवन से निस्तार
का संपूर्ण शोध हो...
किंतु 
प्रकृति के रहस्यों का
सूक्ष्म अन्वेषण,
"आत्मबोध"
विरक्ति का मार्ग है
गात्रधर सासांरिकता
त्याज्य करने से प्राप्त।

प्रेम असह्य दुःख है! 
तो क्या "आत्मबोध"
व्रणमुक्त
संपूर्ण आनंद है?
गुत्थियों को
सुलझाने में
आत्ममंथन की
अनवरत यात्रा
जो प्रेम की
निश्छलता के
बलिदान पर
ज्ञान की
परिपक्वता है।

©श्वेता सिन्हा

Tuesday, 19 May 2020

क्या विशेष हो तुम?


ये तो सच है न!!
तुम
कोई वीर सैनिक नहीं,
जिनकी मृत्यु पर
 देश
गर्वित हो सके।

न ही कोई 
प्रतापी नेता
जिनकी मौत 
 के मातम में
 झंडे झुकाकर
 राष्ट्रीय शोक
 घोषित कर
 दिया जाए। 
 योगदान,त्याग
और बलिदान के
 प्रशस्ति-पत्र पढ़े जायें।

न ही कोई
अभिनेता
जिसकी मौत पर
 बिलखते,छाती पीटते
 प्रशंसकों द्वारा
धक्का-मुक्की कर
श्रद्धापुष्प अर्पित किये जाये,
उल्लेखनीय
जीवन-गाथाओं
की वंदना की जाए।

न ही तुम किसी
धर्म के ठेकेदार हो,
न धनाढ्य व्यापारी,
जिसकी मौत पर
आयोजित
 शोक सभाओं से
 किसी प्रकार का कोई
 लाभ मिल सके।

 कहो न!!
 क्या विशेष हो तुम?
 जिसकी गुमनाम  मौत पर
 क्रांति गीत गाया जाए?
 शोक मनाया जाए?
महामारी के दौर की
 एक चर्चित भीड़!
 सबसे बड़ी ख़बर,
 जिनके अंतहीन दुःख 
अब रोमांचक कहानियाँ हैं..?
जिनकी देह की
बदबू से बेहाल तंत्र
नाक-मुँह ढककर 
उपेक्षा की चादर लिए
राज्य की सीमाओं पर
प्रतीक्षारत है...
 संवेदना और सहानुभूति के
 मगरमच्छी आँसू और
हवाई श्रद्धांजलि 
पर्याप्त नहीं क्या?

 मौलिक अधिकारों के
 संवैधानिक प्रलाप से
 छले जानेवाले
ओ मूर्ख!!
तुम लोकतंत्र का 
मात्र एक वोट हो
और..
डकार मारती
तोंदियल व्यवस्थाओं के
लत-मर्दन से
मूर्छित
बेबस"भूख"

©श्वेता सिन्हा
१९मई२०२०

Monday, 18 May 2020

साँझ


पेड़ की फुनगी में
दिनभर लुका-छिपी 
खेलकर थका,
डालियों से
हौले से फिसलकर
तने की गोद में
लेटते ही
सो जाता है,
उनींदा,अलसाया 
सूरज।

पीपल की 
पत्तियाँ फटकती हैं
दिनभर धूप,
साँझ को समेटकर 
रख देती है,
तने की आड़ में
औंधा।

दिनभर
फुदकती है
चिरैय्या
गुलाबी किरणें 
चोंच में दबाये
साँझ की आहट पा
छिपा देती हैं,
अपने घोंसलों में,
तिनकों के
रहस्यमयी
संसार में।

#श्वेता सिन्हा
१८मार्च२०२०

Sunday, 17 May 2020

ध्वंसावशेष


उनके तलुओं में
देश के गौरवशाली
मानचित्र की
गहरी दरारें 
उभर आयी हैं।

छाले,पीव,मवाद,
पके घावों,स्वेद-रक्त की 
धार से गीली
चारकोल के
बेजान राजमार्गों से
उठती,
आह और बेबसी की भाप
मृत इंसानियत की
हड्डियाँ गला रही है।

ओ धर्म के ठेकेदारों!
कहां हो?
मज़हब के नाम पर
रह-रहकर उबलने वालों
खून तुम्हारा पानी हो गया?
अब क्यों नहीं लड़ते
मानवता के नाम पर
इन अनाम भीड़ से
अपने धर्म--जाति के
निरीह बेबस
चेहरों को क्यों नहीं चुनते ? 

राहत के आँकड़ों
की अबूझ पहेलियाँ 
सियासी दानवीरों की
चमत्कृत घोषणाएँ
ट्रेनों-बसों की लंबी कतारें
तू-तू,मैं-मैं,
ख़ोखली बयानबाज़ी
जन प्रतिनिधियों के
संजीवनी मंत्र का जाप
ठठरियों के 
दिव्य कवच से
टकराकर चूर हो रहे है!!

देश का
गर्वित लोकतंत्र,
शहरी वैभव के
कूड़ेदान,नाबदान
और पीकदान को
साफ़ करने वालों के
चिथड़ों का बोझ
वहन करने में असमर्थ 
क्यों है?
जिनके स्वेद से
गूँथे आटे से
निवाले सोने के हो जाते हैं 
उनकी थाली में
विपन्नता का हास और
आँसुओं का भोग क्यों है?

क्या लिखूँ,कैसे लिखूँ,
कितना लिखूँ 
असहनीय व्यथाओं,
अव्यक्त वेदना का गान
सुनो ओ!
दहकते सूरज,
झुलसाती हवाओं
मेरे लाचार,बेबस
घर वापस लौटते
भाई-बंधुओं से कहो 
न भ्रमित होना 
चकाचौंध से
न लौटकर तुम आना
तुम्हारे गाँव की मिट्टी 
सहज स्वीकार करेगी
तुम्हारे अस्तित्व का
 ध्वंसावशेष।

©श्वेता सिन्हा

Wednesday, 13 May 2020

भीड़ के हक़...


भीड़ के हक़ में दूरी है।
हर तफ़तीश अधूरी है।।

बँटा ज़माना खेमों में,
जीना मानो मजबूरी है।

फल उसूल के एक नहीं,
आदत हो गयी लंगूरी है।

चौराहे पर भीड़ जमा,
ये पागलपन अंगूरी है।

सबक़ समय का याद रहे ,
ज़ख्म भी बहुत जरूरी है।

चिराइन गंध हवाओं में,
कोई गोश्त नहीं तंदूरी है।

सितम दौर के तबतक हैं,
जबतक अपनी मंज़ूरी है।

©श्वेता सिन्हा
१३ मई २०२०

मैं से मोक्ष...बुद्ध

मैं  नित्य सुनती हूँ कराह वृद्धों और रोगियों की, निरंतर देखती हूँ अनगिनत जलती चिताएँ परंतु नहीं होता  मेरा हृदयपरिवर...